उत्तराखंड के प्रमुख अनुसूचित जनजातियों का संछिप्त परिचय

उत्तराखंड के प्रमुख अनुसूचित जनजातियों का संछिप्त परिचय

उत्तराखंड के प्रमुख अनुसूचित जनजातियों का संछिप्त परिचय: उत्तराखंड राज्य की प्रमुख अनुसूचित जनजातियाँ  जौनसारी, थारू, भोटिया, बोक्सा और राजी हैं। उत्तराखंड राज्य में प्रमुख अनुसूचित जनजातियों (Scheduled Tribes) की शारीरिक संरचना, उत्पत्ति, निवास स्थल, व्यवसाय तथा सामाजिक व्यवस्था आदि का संक्षिप्त परिचय निम्नलिखित है —

Table of Contents

उत्तराखंड की प्रमुख अनुसूचित जनजातियाँ

1. जौनसारी (Jaunsari)

जौनसारी उत्तराखंड राज्य का दूसरा सबसे बड़ा जनजातीय समुदाय होने के साथ-साथ गढ़वाल क्षेत्र का भी सबसे बड़ा जनजातीय समुदाय है। इसका मुख्य निवास स्थान लघु हिमालय के उत्तर पश्चिमी (North-Western) भाग का भाबर क्षेत्र है। इस क्षेत्र के अंतर्गत देहरादून का चकराता, कालसी, त्यूनी, लाखामंडल आदि क्षेत्र, टिहरी का जौनपुर क्षेत्र तथा उत्तरकाशी का परगना (Subdivision) क्षेत्र आता है। देहरादून का कालसी, चकराता व त्यूनी तहसील को जौनसारी-बाबर क्षेत्र कहा जाता है। जौनसारी-बावर क्षेत्र में कुल 39 खाते (पट्टी) व 358 राजस्व गांव  है।

जौनसारी-बावर क्षेत्र की प्रमुख भाषा जौनसारी है। बाबर के कुछ क्षेत्र में बाबरी भाषा देवघार में देवघारी व हिमाचली भाषा भी बोली जाती हैं, लेकिन पठन-पाठन हेतु हिंदी का उपयोग किया जाता है।

प्रजाति एवं जाति (Species)

यह मंगोल (Mangol) एवं डॉमो (Domo) प्रजातियों के मिश्रण वाली जनजाति है, यह जनजाति खासस (Khasas), कारीगर (Karigar) और हरिजन खसास (Harijan Khasas) नामक तीन वर्गों में विभाजित है।

वेशभूषा (Dresses)

इनके पुरुष सर्दियों में ऊनी कोट, पजामा तथा ऊनी टोपी पहनते है, जबकि उसकी स्त्रियां ऊनी कुर्ता, ऊनी घाघरा पहनती है।

आवास (Residence)

जौनसारी लोग अपना घर लकड़ी और पत्थर से बनाते है, जो दो, तीन या चार मंजिल का होता है। घर का मुख्य द्वार लकड़ी का बना होता है, जिस पर विभिन्न प्रकार की सजावट की जाती है।

सामाजिक संरचना (Social Structure)

इनमें पितृ सत्तात्मक (Father’s Functional) प्रकार की संयुक्त परिवार प्रथा (custom) पाई जाती है। परिवार का मुखिया सबसे बड़ा पुरुष सदस्य होता है, जो परिवार की संपत्ति की देखभाल करता है।

धर्म (Religion)

लगभग संपूर्ण जौनसारी हिंदू धर्म को मानते है। यह महासु, वासिक, बोठा, पवासी व चोलदा आदि देवी-देवताओं को अपना कुलदेव एवं संरक्षक मानते है। महासु इनके महत्वपूर्ण देवता है। इनकी पूजा-अर्चना पूरे समुदाय के लोग करते है।

सांस्कृतिक गतिविधियां (Cultural Activities)

बैशाखी, दशहरा, दीपावली, माघ त्यौहार, नुणाई, जगडा आदि इनके विशिष्ट त्यौहार, उत्सव, मेले है।

आर्थिक गतिविधियां (Economic Activities)

कृषि एवं पशुपालन इनका मुख्य व्यवसाय है। खसास (ब्राह्मण और राजपूत) जौनसारी काफी संपन्न होते है, यह कृषि भूमि के मालिक होते है।

2. थारु (Tharu)

उधम सिंह नगर जिले में मुख्य रूप से खटीमा, किच्छा, नानकमत्ता और सितारगंज के 141 गांव में निवास करने वाला थारू समुदाय उत्तराखंड व कुमाऊं क्षेत्र का सबसे बड़ा जनजातीय समुदाय (Tribal Communities) है। उत्तराखंड के अलावा उत्तर प्रदेश के लखीमपुर गोंणा, बहराइच, महराजगंज, सिद्धार्थ नगर आदि जिलों, बिहार के चंपारण तथा दरभंगा जिलों तथा नेपाल के पूर्व में भेंची से लेकर पश्चिम में महाकाली नदी तक तराई एवं भाबर क्षेत्रों में फैले हुए है।

उत्पत्ति (Origin)

सामान्य: थारुओं को किरात वंश का माना जाता है। जो कई जातियों और उप जातियों में विभाजित है। थारू शब्द की उत्पत्ति को लेकर विद्वानों में अनेक मतभेद है। कुछ विद्वान राजस्थान के थार मरुस्थल से आकर बसने व अपने को महाराणा प्रताप के वंशज कहने के कारण इनका नाम ‘थारू’ पड़ने का समर्थन करते है।

आवास (Residence)

ये लोग अपना मकान बनाने के लिए लकड़ी, पत्तों और नरकुल का प्रयोग करते है। दीवारों पर चित्रकारी होती है। प्रत्येक घर में पशुबाड़ा (Stockyard) व घर के सामने प्राय: पूजा स्थल (Places of worship) होता है।

भोजन (Food)

इनका मुख्य भोजन चावल और मछली है।

सामाजिक स्वरूप (Social Structure)

सामाजिक रूप से यह कई गोत्रों या जातियों (Castes) में बटे हैI बड़वायक, बट्ठा, रावत, वृतियाँ, महतो व डहेत इनके प्रमुख गोत्र या घराने है। बडवायक सबसे उच्च मानें जाते है।

धर्म (Religion)

थारू, हिन्दू धर्म को मानते है। पछावन, काली, नगरयाई देवी, भूमिया, करोदेव सहित अनेक देवी-देवताओं, भूत-प्रेतों तथा अपने पूर्वजों (Ancestors) की पूजा करते है।

त्योहार (Festival)

दशहरा, होली, दिवाली, माघ की खिचड़ी, कन्हैया अष्टमी और बजहर इनके प्रमुख त्यौहार है। बजहर नामक त्यौहार ज्येष्ठ या बैशाख में मनाया जाता है, दिवाली को ये शोक पर्व के रूप में मनाते है। होली फाल्गुन पूणिमा के आठ दिनों तक मनाया जाता है, जिस में स्त्री व पुरुष दोनों मिलकर खिचड़ी नृत्य करते है।

अर्थव्यवस्था (Economy)

थारू लोग प्राय: सीधे-सादे व ईमानदार होते है। इनका आर्थिक जीवन सामान्य रूप से कृषि, पशुपालन व आघेट पर आधारित होता है।

3. भोटिया (Bhotia/Bhotiya)

किरात वंशीय भोटिया एक अर्द्धघुमंतु जनजाति है। ये अपने को खस राजपूत कहते है। कश्मीर के लद्दाख में इन्हें भोटा और हिमाचल प्रदेश के किन्नौर में इन्हें भोट नाम से जाना जाता है। जबकि राज्य के पिथौरागढ़ जिले के तिब्बत व नेपाल से सटे सीमावर्ती क्षेत्र में इन्हें भोटिया कहा जाता है। मारछा, तोल्छा, जौहारी, शौका, दरमियां, चौदासी, व्यासी, जाड़, जेठरा व छापड़ा आदि उपजाति नामों से ये राज्य के पिथौरागढ़, चमोली, अल्मोड़ा तथा उत्तरकाशी जिलों के उत्तरी भाग में स्थित है। भोटिया, महा हिमालय की सर्वाधिक जनसंख्या वाली जनजाति है।

गढ़वाल की चमोली में ‘मारच्छा‘तोल्छा तथा उत्तरकाशी में  ‘जाड़’ रहते है। जबकि कुमाऊ के पिथौरागढ़ में ‘जोहारी एवं ‘शौका भोटिया रहते है।

भाषा (Language)

ये हिमालय की तिब्बती बर्मी भाषा (Tibetan Burmese Language) परिवार से संबंधित 6 बोलियाँ बोलते है।

शारीरिक संरचना (Body Structure)

शारीरिक संरचना की दृष्टि से ये तिब्बती (Tibetan), मंगोलियन (Mongolian) जाति के मिश्रण है। इनका कद छोटा, सिर बड़ा, चेहरा गोल, आंखें छोटी, नाक चपटी और शरीर पर बालों की कमी तथा बालों का रंग भूरा होता है।

आवास-निवास (Housing-Residence)

भोटिया शीतकाल के अलावा वर्ष भर 2100 से 3600 मीटर की ऊंचाई वाले स्थानों, जहां चरागाह की सुविधा हो वहां पर अपना आवास बनाते है। शीतकाल के आरंभ होते ही ये अपने परिवार एवं पशुओं के साथ गुण्डा या मुनसा में आ जाते है। इनके आवास में लकड़ी का प्रयोग अधिक किया जाता है। दरवाजा छोटा बनाया जाता है। भोटिया जनजाति के ‘मैत’ ग्रीष्मकालीन तथा ‘गुण्डा’ या ‘मुनसा’ शीतकालीन आवास होते हैं।

परिधान (Dress)

इनके पुरुष रंगा, गेजू या खगचसी, चुंगाठी व बांखे पहनते है। इनकी स्रियाँ च्युमाला, च्यूं, च्यूकला, ज्युख्य, च्युब्ती, ब्युज्य आदि वस्त्र धारण करते है।

भोजन (Food)

चावल या मडुआ का भात (Rice), सामान्य रोटी, बड़े आकार की रोटी, पतोड़ा, जो-गेहू का सत्तु, दाल, सब्जी व मांस इनके प्रमुख भोजन है। मांस को ये शीतकाल के लिए सुखा कर भी रखते है।

सामाजिक व्यवस्था (Social System)

इनमें पितृसत्तात्मक एवं पितृस्थानीय प्रकार का परिवार पाया जाता है। ये लोग परिवार के बुजुर्गों को बहुत सम्मान देते है। संपत्ति का विभाजन पिता के जीवित रहते हो जाता है। स्त्रियों को भी पुरुषों के समान ही अधिकार प्राप्त है।

धर्म (Religion)

उत्तरकाशी में रहने वाले कुछ भोटिया जनजाति के लोगों ने बौद्ध धर्म (Buddhism) अपनाया गया है, बाकी सभी हिंदू धर्म मानते है।

भोटिया अपनी रक्षा तथा मनोकामनाओं की पूर्ति के लिए भुम्याल, ग्वाला, बैग, रैग,  चिम, नंदादेवी, दुर्गा, कैलाश पर्वत, द्रोणागिरी, हाथी पर्वत  आदि देवी-देवताओं की पूजा करते है। इनमे प्रत्येक 12वें वर्ष में कंडाली नामक उत्सव मनाया जाता है।

अर्थव्यवस्था (Economy)

इनका आर्थिक जीवन कृषि, पशुपालन, व्यापार व ऊनी दस्तकरी पर आधारित है। ये पर्वतीय ढालों पर ग्रीष्मकाल से सीढीनुमा खेती करते है। यहां पर झूम-प्रणाली की तरह से वनों को आग से साफ कर खेती योग्य भूमि तैयार की जाती है।

4. बॉक्सा (Boksa)

बॉक्सा उत्तराखंड के तराई-भाबर क्षेत्र में स्थित उधम सिंह नगर के बाजपुर, गदरपुर एवं काशीपुर, नैनीताल के रामनगर, पौड़ी गढ़वाल के दुगड्डा तथा देहरादून के विकासनगर, डोईवाला एवं सहसपुर विकासखंडों में लगभग 173 गांव में निवास करते है। उधम सिंह नगर के बाजपुर, काशीपुर, गदरपुर आदि स्थानों पर इनकी संख्या अधिक है। नैनीताल व उधमसिंह नगर जिलों के बॉक्सर बहुल क्षेत्र को बुकसाड कहा जाता है।

बुक्सा अपने को पंवार राजपूत बताते है। कुछ विद्वान इन्हें मराठों द्वारा भगाई गई लोगों का वंशज मानते है। तो कुछ विद्वान चित्तौड़ पर मुगलों के आक्रमण के समय राजपूत स्त्रियां और उनके अनुचर भागकर यहां आने और उन्हीं के वंशज होने को मानते है। ऐसा कहा जाता है कि वह का सर्वप्रथम बनबसा (चंपावत) में 16वीं शताब्दी में आकर बसे थे।

शारीरिक संरचना (Body Structure)

इन लोगों का कद और आँखे छोटी, पलके भारी, चेहरा चौड़ा, होंठ पतले एवं नाक चपटी होती है। इनके जबड़े मोटे और निकले हुए तथा दाढ़ी और मुछे घनी और बड़ी होती है।

भाषा (Language)

इन लोगों को अपनी कोई विशिष्ट (Specific) बोली नहीं है। बल्कि जिन स्थानों में निवास करते है। वही की बोली बोलते है।

परिधान (Dress)

इनके पुरुष धोती, कुर्ता, सदरी और सिर पर पगड़ी धारण करते है। नगरों में रहने वाले पुरुष शर्ट, कोट, पेंट आदि पहनते है।

सामाजिक व्यवस्था (Social System)

सामान्य रुप से यह पांच गोत्रों या उप-जातियों में विभक्त है। देहरादून में महर, बॉक्स पाए जाते है। गौत्र इनके समाज की व्यवहार मूलक सामाजिक इकाई (Social unit) है। एक गोत्र के लोग आपस में विवाह नहीं कर सकते है।

इनके ज्यादातर संयुक्त और विस्तृत परिवार (extended family) पाए जाते है। लेकिन कुछ केंद्रीय परिवार भी देखने को मिलते है। अब धीरे-धीरे इनका झुकाओ केंद्रीय परिवार की ओर बढ़ता जा रहा है।

धर्म (Religion)

बोक्सा हिंदू धर्म को काफी निकट है। यह लोग महादेव, काली, दुर्गा, लक्ष्मी, राम, कृष्ण तथा अपने स्थानी देवी-देवताओं की पूजा करते है। काशीपुर की चामुंडा देवी इस क्षेत्र के बोक्साओं की सबसे बड़ी देवी मानी जाती है।

त्योहार (Festival)

चैती, नोबी, होली, दीपावली, नवरात्रि आदि इनके प्रमुख त्यौहार है। चैती इनका एक महत्वपूर्ण त्यौहार एवं मेला है।

अर्थव्यवस्था (Economy)

पहले इनका आर्थिक जीवन जंगली लकड़ी, शहद, फल-फूल-कंद, जंगली जानवरों के शिकार व मछली पर आधारित था। लेकिन अब कृषि, पशुपालन एवं दस्तकारी इनके आर्थिक जीवन का मुख्य आधार है।

राजनीतिक व्यवस्था (Political System)

बोक्सा समाज की सबसे छोटी इकाई परिवार है, कई परिवारों से मिलकर एक बोक्सा गांव का निर्माण होता है। गांव में छोटी-मोटे विवादों से निपटारे के लिए एक समिति होती है, जिसका एक प्रधान होता है। जो गांव के स्तर पर सर्वोच्च होता है।

5. राजी (Raji)

राजी मुख्यत: पिथौरागढ़ जनपद के धारचूला, कनालीछीना एवं डीडीहाट विकासखंडो के 7 गाँवों में, चंपावत के एक गाव में व कुछ संख्या में नैनीताल में भी निवास करते है। सन 2011 में इनके परिवारों की कुल संख्या 130 तथा इनकी कुल जनसंख्या लगभग 528 थी।

विद्वानों का मानना है कि प्राचीन काल में गंगा-पठार में पूर्व से लेकर मध्य तक तथा नेपाल के कुछ क्षेत्र में आग्नेय वंशीय कोल-किरात जातियों  का निवास था। कालांतर में इन्ही के वंशज राजी के नाम से जाने गए।

उनको बनरोत, बनराउत, बनरावत, जंगल के राजा आदि नामों से भी संबोधित किया जाता है। लेकिन राजी नाम अधिक प्रचलित है।

शारीरिक गठन (Body Structure)

ये कद में छोटे तथा चपटे मुख वाले होते है। इनकी काठी मजबूत तथा होंठ कुछ बाहर की ओर मुड़े हुए होते है। बाल घुमावदार होते है, शरीर का वर्ण (Color) सामान्य काला या कुछ-कुछ पीलापन लिए होता है।

भाषा (Language)

इनकी भाषा में तिब्बती (Tibetan) और संस्कृति शब्दों की अधिकता पाई जाती है, किंतु मुख्यतः मुंडा बोली के शब्दों की होती है। ये इस बोली का प्रयोग के स्थानीय रूप से ही करते है। बाह्य संपर्क हेतु ये कुमाऊनी का उपयोग करते है।

वस्त्र, आवास एवं भोजन (Clothing, Housing and Food)

राजी जनजाति  के पुरुष धोती, अंगरखा व पगड़ी धारण करते है। यह चोटी भी रखते है। महिलाएं लहंगा, चोली, ओढ़नी धारण करती है।

पहले ये अधिकांशत: वनों में निवास करते थे, लेकिन अब ये झोपड़ियों में निवास करते है। अपने आवास को ये रौत्यूडा कहते है।

पहले यह अपना पोषण जंगल में ही फल-फूल, कंद व मांस से करते थे, लेकिन अब ये समिति स्तर पर कृषि, दस्तकारी व मजदूरी से करते है। मडुआ, मक्का, दाल, सब्जी, भट्ट (सोयाबीन), मछली, मांस, जंगली फल, कंदमूल व अनेक जंगली वनस्पतियां इनके भोजन है।

सामाजिक व्यवस्था (Social System)

विवाह इनके दो परिवारों के बीच एक समझौता माना जाता है। यह हिंदुओं की तरह अपनी गौत्र में विवाह नहीं करते है। विवाह के पूर्व, मंगजांगी व पीठा संस्कार संपन्न होते है। बच्चों का विवाह प्रायः कम आयु में कर दिया जाता है। पहले इनमें पलायन विवाह काफी प्रचालन में था।

धर्म (Religion)

भगवानो में इन लोगों का विश्वास है, कि देवी-देवता पहाड़ की चोटी, नदी, तालाब और कूओं में रहते है। ये बागनाथ, मलेनाथ, गणनाथ, सैंम, मल्लिकार्जुन, छुरमल आदि देवी-देवताओं को पूजते है। इनके मुख्य देवता बागनाथ है। ये हिंदू धर्म को मानते है।

इनमे जिस स्थान पर किसी की मृत्यु हो जाती है, तो उस स्थान पर उसके बाद कोई नहीं रहता। मृतकों को गाड़ने व जलाने की परंपरा है।

रीति-रिवाज (customs and traditions)

कर्क और मकर संक्रांति इनके दो प्रमुख त्यौहार है इस त्योहारों पर सभी परिवारों में पकवान आदि बनाये जाते है। विशेष अवसरों पर ये थडिया जैसा नृत्य करते है।

अर्थव्यवस्था (Economy)

ये काष्ठ कला में निपुण होते है। कुछ समय पूर्व तक ये लकड़ी के घरेलु सामान व लकड़ी के गट्ठरों को आस-पास के गांव में मूक या अदृश्य  विनिमय द्वारा अपने आवश्यकताओं की सामग्री प्राप्ति करते थे। उन्हें जिन चीजों की आवश्यकता होती थी, उसका एक छोटा सा टुकड़ा अपने द्वारा बनाए गए वस्तुओं या लकड़ी के गट्ठर में चिपका कर रात के समय आस-पास के गांव में जाकर लोगों के घर के बाहर छोड़ जाते थे। अगले दिन लोग उस सामग्री को लेकर उसी स्थान पर उनके आवश्यकता की सामग्री रखते थे। जिसे वे रात्रि में उठा कर ले जाते थे।

इनकी कुछ परिवार अभी भी घुमक्कड़ी अवस्था में जीवन यापन कर रहे है। लेकिन ज्यादातर लोग झूमविधि से थोड़ी बहुत कृषि करने लगे है। कृषि के साथ-साथ ये आखेट, पशुपालन व वन उत्पाद संग्रहण भी करते है। वन की कटाई पर रोक लगने के कारण यह, अब वनों से बाहर निकल कर मजदूरी भी करने लगे हैI अभाव एवं कुपोषण के कारण इनकी संख्या दिनों-दिन घट रही है।