गुरु रविदास

गुरु रविदास जयंती

गुरु रविदास जयंती 2019 : गुरु रविदास जी की जयंती 19 फरवरी, 2019को मनाई जाएगी, जोकि संत रविदास का 642 वां जन्म दिवस है। इस दिन गुरु रविदास के अनुयायी सिख समुदाय द्वारा गुरुद्वारों में नगर कीर्तन और हिन्दू समुदाय द्वारा मंदिरों आरती का आयोजन किया जाता है। कुछ अनुयाई इस दिन रविदास की फोटो या प्रतिमा की पूजा करते है। रविदास जयंती मनाने का उद्देश्य गुरु रविदास जी द्वारा दी गयी शिक्षा को याद करना और उसका पालन करना है।

संत रविदास भारत में जन्में 15वीं शताब्दी के महान संत, समाज-सुधारक, कवि, दर्शनशास्त्री और एकेश्वरवाद के अनुयायी थे। गुरु रविदास निर्गुण संप्रदाय के अनुयायी थे अर्थात ऐसे एकेश्वरवादी संत और साधुओं के संप्रदाय का अनुसरण करते थे, जोकि निर्गुण ब्रह्म में विश्वास रखते हैं और उनकी उपासना करते हैं। गुरु रविदास संत परंपरा के प्रसिद्ध व्यक्तित्व थे। इन्होने उत्तर भारत में भक्ति आन्दोलन का नेतृत्व किया था।

रविदास जी बहुत अच्छे कवितज्ञ और संत थे। गुरु रविदास जी ने अपनी रचनाओं के माध्यम से कई धार्मिक एवं सामाजिक सन्देश दिये हैं। रविदास जी की रचनाओं में भगवान के प्रति उनके अगाध प्रेम की झलक साफ नजर आती है। रविदास जी ने उनकी रचनाओं के माध्यम से दूसरे लोगों को भी परमेश्वर से प्रेम करने और उनसे जुड़ने के लिए कहा है। कई लोग संत रविदास को उनके द्वारा दी गयी सीखों के कारण उन्हें अपना गुरु भी मानते हैं। वहीं कुछ लोग संत रविदास को भगवान मान इनकी पूजा भी करते हैं।

गुरु रविदास जी की जीवनी

गुरु रविदास जी
गुरु रविदास जी
पूरा नाम गुरु रविदास जी
अन्य नाम रैदास, रोहिदास, रूहिदास
जन्म वर्ष 1377 AD
जन्म स्थान वाराणसी, उत्तरप्रदेश
मृत्यु वर्ष 1540 AD
मृत्यु स्थान वाराणसी
माता श्रीमती कलसा देवी
पिता  श्री संतोख दास
दादी श्रीमती लखपति
दादा श्री कालू राम
पत्नी श्रीमती लोना
बेटा विजय दास

 

गुरु रविदास जी का जन्म 1377 AD में उत्तर प्रदेश के वाराणसी के पास सीर गोबर्धन नामक गाँव में हुआ था। संत रविदास जी की माता का नाम श्रीमती कलसा देवी एवं पिता का नाम श्री संतोख दास था।

संत रविदास जी के पिता संतोख दास ‘राजा नगर’ नामक राज्य के सरपंच थे। संतोख दास का जूते बनाने और सुधारने का काम था। वे मृत जानवरों की खाल निकालकर, उससे चमड़ा बनाकर, उसकी चप्पल बनाया करते थे।

इस कारण संत रविदास को बचपन से ही उच्च कुलीन लोगों की हीन भावना का शिकार होना पड़ा। इसीलिए संत रविदास ने इस हीन भावना, छुआ-छूत, भेदभाव को मिटाने का प्रण लिया और अपनी रचनाओं के द्वारा समाज में स्थित कुरूतियों को मिटाने का प्रयास किया और सबको उच-नीच भूलकर सबको अपनाने और सब से प्रेम करने के लिए प्रोत्साहित किया।

गुरु रविदास बाल्यावस्था से ही भगवान आस्था रखते थे। बाल्यावस्था में रविदास गुरु पंडित शारदा नन्द की पाठशाला में शिक्षा लेने जाया करते थे। यह बात कुछ उच्च जाति के लोगों को रास न आयी और उन्होंने रविदास का पाठशाला में आना बंद करवा दिया। यह बात रविदास के गुरु पंडित शारदा नन्द जी को पसंद नहीं आयी और उन्होंने ने रविदास को गुपचुप तरीके से पढ़ाना जारी रखा क्यूंकि गुरु पंडित शारदा नन्द जानते थे कि रविदास एक प्रतिभशाली और अनूठे व्यक्तित्व का बालक है।

बालक रविदास के साथ ही पंडित शारदा नन्द का बेटा भी पढ़ा करता था। वे दोनों जल्द ही अच्छे मित्र बन गए। एक दिन रविदास, पंडित शारदा नन्द के घर जाते हैं तो उन्हें ज्ञात होता है कि पंडित शारदा नन्द का पुत्र और उसके मित्र की मृत्यु हो गई है। यह जान रविदास स्तब्ध रह जाते हैं। रविदास मृत मित्र के पास जाकर उसके कान में कहते हैं “कि यह सोने का समय नहीं है, उठो और मेरे साथ खेलो।” यह शब्द सुनते ही उनका मृत पड़ा मित्र खड़ा हो जाता है। यह चमत्कारिक दृश्य देख वहां मौजूद हर व्यक्ति अचंभित हो जाता है। इससे ज्ञात होता है कि रविदास जी बचपन से ही अलौकिक शक्तियों के धनी थे।

रविदास जी जैसे जैसे बड़े हुए, भगवान के प्रति उनकी भक्ति बढ़ती चली गयी। रविदास जी मीरा बाई के धार्मिक गुरु थे। मीरा बाई राजस्थान के राजा रतन सिंह की बेटी और चित्तोड़ की रानी थी। मीरा रविदास जी के उपदेश और शिक्षाओं से अत्यधिक प्रभावित थीं इसीलिए वे गुरु रविदास की अनुयायी बन गई थी।

मीरा बाई ने अपने गुरु रविदास के सम्मान में कुछ पक्तियां भी लिखी, ‘गुरु मिलया रविदास जी।’

बचपन में मीरा बाई की माता का देहांत के बाद इनके दादा ‘दुदा जी’ ने इनक पालन पोषण किया। दुदा जी स्वयं रविदास जी के बड़े अनुयाई थे इसलिए मीरा बाई पर रविदास जी की अमिट छाप पड़ी। मीरा बाई ने अपनी रचनाओं में लिखा है कि उन्हें कई बार गुरु रविदास जी ने मृत्यु से बचाया था।

गुरु रविदास जी की भगवान के प्रति प्रेम, सद्भावना, मानवता और शिक्षाओं से प्रेरित हो दिन-प्रतिदिन उनके अनुयाईयों की संख्या बढ़ती जा रही थी। वहीं दूसरी तरफ कुछ ब्राह्मण उनको मारने की योजना बना गाँव से दूर एक सभा का आयोजन करते हैं और उसमें गुरु रविदास जी को भी आमंत्रित करते हैं। गुरु रविदास जी लोगों की चाल को पहले ही समझ जाते हैं। गुरु जी वहाँ जाकर सभा का शुभारंभ करते हैं तभी एक व्यक्ति उन पर आत्मघाती हमला करता है परन्तु उन्हें ज्ञात होता कि जिसे वह संत रविदास समझ कर मार रहे हैं वह तो उन लोगों का साथी भल्ला नाथ है। तभी एक कक्ष से शंखनाद सुनाई देता है और उस कक्ष से गुरु रविदास बाहर आते हैं यह सब देख सब मान जाते हैं कि संत रविदास चमत्कारिक और असाधारण व्यक्ति हैं और वह सब उनसे क्षमा-याचना करने लगते हैं।

संत रविदास जी के अनुयाईयों का मत है कि संत रविदास ने 120 या 126 वर्ष की आयु में स्वयं ही अपना शरीर त्याग दिया था। मतानुसार संत रविदास ने 1540 AD में वाराणसी में अंतिम सांस ली थी।

Source : wikipedia.org

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