पाइका विद्रोह या उड़ीसा के पायकों का विद्रोह : पाइका विद्रोह उड़ीसा में हुआ था इसे उड़ीसा के पायकों का विद्रोह या पाइका जाति का विद्रोह भी कहा जाता है। पाइका विद्रोह को उड़ीसा (ओडिशा) में बहुत उच्च दर्ज़ा प्राप्त है। 2017 में इस विद्रोह की 200वीं वर्षगाँठ पर भारत सरकार द्वारा पाठ्य पुस्तकों में इसे ‘प्रथम स्वतंत्रता संग्राम’ के रूप में स्थान दिया गया है। सरकार द्वारा लिए गए इस कदम से पहले तक 1857 के सिपाही विद्रोह (1857 की क्रांति) को ही प्रथम भारतीय स्वतंत्रता संग्राम माना जाता था।
पाइका विद्रोह
- पाइका या पायकों उड़ीसा की एक पारंपरिक भूमिगत रक्षक सेना थी। ये योद्धा थे जो स्थानीय लोगों की सेवा भी करते थे।
- पाइका विद्रोह के नेता बक्शी जगबंधु थे। खुर्दा के राजा ने भी इस विद्रोह में पाइकों का साथ दिया था ऐसा करने के पीछे राजा का मकसद राज्य को पुनः प्राप्त करना था जो कभी सफल न हो सका।
- जब ईस्ट इंडिया कंपनी द्वारा 1803 में खुर्दा (उड़ीसा) पर विजय हासिल कर ली गयी तो पाइकों की शक्ति एवं प्रतिष्ठा घटने लगी।
- उड़ीसा के पायकों के विद्रोह विद्रोह का मुख्य कारण अंग्रेजों द्वारा अन्य रियासतों की ही तरह उड़ीसा में भी भूमि कर में वृद्धि कर दी थी तथा इसकी जबरन वसूली बड़ी सख्ती से की जा रही थी।
- इस अत्याचार से हजारों किसान खेतों को छोड़कर जंगलों में भागने लगे और लोगों में अंग्रेजों के प्रति भयंकर आक्रोश व्याप्त हो गया।
- साथ ही ईस्ट इंडिया कंपनी द्वारा कौड़ी मुद्रा व्यवस्था को भी समाप्त कर दिया गया, जो कि उड़ीसा में कंपनी के विजय से पहले अस्तित्व में थी। कौड़ी मुद्रा व्यवस्था समाप्त करने के बाद चांदी में कर चुकाना अनिवार्य था। यही इस असंतोष का सबसे बड़ा कारण बना।
- परन्तु स्थानीय पायकों ने जो कि मुगलों व मराठों के विरूद्ध मोर्चा ले चुके थे। अंग्रेजों का भरसक प्रतिरोध किया एवं उन्होंने खुर्दा जैसे स्थान पर अंग्रेजों को करारी मात भी दी।
- यह विद्रोह 1817 ई० में शुरू हुआ था जो 1818 ई० में आकर शिथिल पड़ गया।
- 1817 में हुए उड़ीसा के इस पाइका विद्रोह ने पूर्वी भारत में कुछ समय के लिये ब्रिटिश सरकार की जड़ें हिला दी थीं।
- इस विद्रोह में घुमसुर (वर्तमान में गंजम और कंधमाल ज़िले का हिस्सा है) के आदिवासी लोगों ने और अन्य वर्गों ने भी इस विद्रोह में प्रमुख भूमिका निभाई थी।
- 1821 तक जगबन्धु अंग्रेजो का प्रतिकार करता रहा। बक्शी जगबंधु को 1825 में गिरफ्तार कर लिया गया और कैद में रहते हुए ही 1829 में उनकी मृत्यु हो गई।
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