भारत में यूरोपीय कंपनियों का आगमन

भारत में यूरोपीय कंपनियों का आगमन

भारत में यूरोपीय कंपनियों का आगमन: प्राचीन काल से ही विदेशी व्यापार हेतु भारत आया करते थे, व्यापार हेतु ही भारत में यूरोपीय कंपनियों का आगमन हुआ। सर्वप्रथम पुर्तगाली जलमार्ग होते हुए भारत आये, उनके बाद क्रमशः डच, ब्रिटिश और फ्रांसीसी भारत आये। जल्द ही भारत के समुद्र के निकटवर्ती और समुद्री इलाकों व सामुद्रिक व्यापार पर यूरोपियों का एकाधिकार हो गया।

पुर्तगाली

17 मई, 1498 को जलमार्ग से सर्वप्रथम पुर्तगाली नाविक वास्को-डि-गामा भारत आया था। भारत के लिए समुद्रीमार्ग की खोज का श्रेय पुर्तगालियों को ही दिया जाता है। वास्को-डि-गामा समुद्रीमार्ग से भारत के पश्चिमी तट पर स्थित कालीकट नामक स्थान पर आया। वहां का तत्कालीन हिन्दू शासक जमोरिन था। जमोरिन ने ही कालीकट पर वास्कोडिगामा का स्वागत किया था। वास्को-डि-गामा को व्यापार करने की सुविधा जमोरिन ने ही प्रदान की थी। यूरोपियों का भारत में आने का मुख्य मकसद व्यापार करना था। वास्को-डि-गामा ने ‘केप ऑफ गुड़ होप‘ के रास्ते भारत तक के समुद्री मार्ग की खोज की थी।

1505 ई. में फ्रांसिस्को-डि-अल्मीडा नामक पुर्तगाली को भारत में पुर्तगाली क्षेत्रों का अधिकृत गवर्नर बनाकर भेजा गया। फ्रांसिस्को-डि-अल्मीडा को हिन्द महासागर में व्यापार पर पुर्तगालियों का नियंत्रण स्थापित करना था पर वह इसमें असफल रहा और 1509 ई. में वापिस पुर्तगाल चला गया।

फ्रांसिस्को-डि-अल्मीडा के बाद 1509 ई. में अलफांसो-डि-अल्बुकर्क को अगला पुर्तगाली गवर्नर बनाकर भारत भेजा। अलफांसो-डि-अल्बुकर्क को ही भारत में पुर्तगाली शक्ति का असली संस्थापक माना जाता है। अलफांसो-डि-अल्बुकर्क ने पुर्तगालियों को भारतीयों से शादी करने की सलाह दी थी ताकि भारत में पुर्तगालियों की संख्या बढ़ाई जा सके। अलफांसो-डि-अल्बुकर्क ने गोवा, और फारस की खाड़ी में स्थित होरमुज द्वीप पर अपना अधिपत्य किया था। 1510 ई. में पुर्तगालियों ने गोवा को बीजापुर से छीना था, बीजापुर का तत्कालीन शासक युसूफ आदिलशाह था। 1503 ई. में अलफांसो-डि-अल्बुकर्क ने ही कोचीन में पुर्तगाली दुर्ग का निर्माण करवाया था। 1530 ई. में गोवा भारत में पुर्तगालियों की राजधानी थी, यहीं पर पुर्तगालियों का मुख्यालय स्थित था।

1560 ई. में मार्टिन अलफांसो डिसूजा को गवर्नर बनाकर भेजा गया जिसके साथ ईसाई संत फ्रांसिस्को जेवियर भी भारत आया जिसने गोवा की स्थानीय जातियों और मछुआरों को ईसाई धर्म अपनाने के लिये प्रेरित किया था। पुर्तगालियों ने अपने समुद्री साम्राज्य को ‘इस्तादो-द-इंडिया‘ नाम दिया था, जिसके तहत उनके अधिकार क्षेत्र से गुजरने वाले जहाजों को सुरक्षा कर देना होता था, जिसे कार्टज कहा जाता था। यह एक परमिट की भांति हुआ करता था। मुग़ल साम्राज्य के महान शासक अकबर को भी ये सुरक्षा कर देना पड़ता था।

भारत में लाल मिर्च, काली मिर्च और तंबाकू की खेती पुर्तगालियों की ही देन थी। भारत में जहाज निर्माण और प्रिंटिंग प्रेस तकनीक लाने का श्रेय भी पुर्तगालियों को ही जाता है। 1556 ई. में भारत में पहली प्रिंटिंग प्रेस की स्थापना पुर्तगालियों द्वारा ही की गयी थी। बंगाल में पुर्तगालियों द्वारा स्थापित पहली फैक्ट्री हुगली थी।

पांडिचेरी पर कब्ज़ा करने वाले पहले यूरोपीय पुर्तगाली ही थे, जिन्होंने 1793 ई. में पांडिचेरी पर अपना अधिपत्य किया था। 17 वीं शताब्दी तक पुर्तगालियों की शक्ति भारत में डचों के आगमन, धार्मिक असहिष्णुता और पुर्तगाली शाही सरकार के हस्तछेप के कारण क्षीण होने लगी और भारत में पुर्तगालियों का एकाधिकार समाप्त हो गया।

डच (हॉलैंड)

डच लोग जोकि हॉलैंड के निवासी थे 1596 ई. में भारत आये थे। डचों ने 1602 ई. में डच ईस्ट इंडिया कम्पनी की स्थापना भी की थी। डचों द्वारा ही भारत से व्यापार हेतु सर्वप्रथम संयुक्त पूंजी कम्पनी शुरू की गयी थी। बंगाल के चिनसुरा में डचों ने एक कारखाना भी स्थापित किया था। डच लोगों का मुख्य उद्देश्य दक्षिण-पूर्वी एशिया के टापुओं पर व्यापार करना था भारत उनके व्यापारिक मार्ग में पड़ने वाली बस एक कड़ी था।

डचों ने पुर्तगालियों को पराजित कर कोच्चि में फोर्ट विलियम्स का निर्माण किया था। डचों ने गुजरात, कोरोमण्डल, बंगाल और ओडिशा आदि में व्यापारिक कोठियां खोली थी। डचों ने पहली कोठी मुसलीपट्टम में स्थापित की तथा दूसरी पुलीकट में की थी।

17 वीं शताब्दी में डच व्यापारिक शक्ति चरम पर थी। डच लोग भारत से सूती वस्त्र, अफीम, रेशम तथा मसालों आदि महत्वपूर्ण वस्तुओं का निर्यात करते थे। 1759 ई. में अंग्रेजों और डचों के मध्य बेदरा का युद्ध हुआ था, जिसमें डच इतनी बुरी तरह हारे की भारत से उनके पैर ही उखड गए। यही कारण था कि 18 वीं शताब्दी में अंग्रेजों (ब्रिटिश) के सामने डचों की शक्ति क्षीण पड़ गयी।

अंग्रेज (ब्रिटिश)

भारत में व्यापार हेतु आयी सभी यूरोपीय कंपनियों में से अंग्रेज (ब्रिटिश) सबसे शक्तिशाली थे। 1599 ई. में जॉन मिल्डेनहॉल नामक पहला अंग्रेज भारत आया था। 31 दिसम्बर, 1600 में इंग्लैंड की तत्कालीन महारानी एलिजाबेथ प्रथम द्वारा ब्रिटिश कंपनी को भारत से 15 वर्षों तक व्यापार हेतु अधिकार पत्र प्रदान किया गया। स्थल मार्ग से लीवेंट कंपनी को तथा समुद्री मार्ग से ईस्ट इंडिया कंपनी को अधिकार पत्र प्रदान किया गया था।

इसी कंपनी से 1608 ई. में कैप्टन हॉकिन्स तत्कालीन मुग़ल शासक जहांगीर के दरबार में इंग्लैंड का राजदूत बनकर आया था। भारत में अपने व्यापार को बढ़ाने के उद्देश्य से हॉकिन्स ने सूरत में बसने की गुजारिश की और जहांगीर को उपहार स्वरूप दस्ताने और इंग्लैंड में प्रयोग की जाने वाली बग्घी दी। जिससे प्रशन्न होकर जहांगीर ने कैप्टन हॉकिन्स को ‘इंग्लिश खां‘ की उपाधि प्रदान की थी। पुर्तगालियों और अन्य स्थानीय व्यपारियों के विरोध के कारण जहांगीर चाहकर भी अंग्रेजो को सूरत में बसने की आज्ञा न दे सका। फलस्वरूप अंग्रेजों ने बल पूर्वक 1611 ई. में कैप्टन मिडल्टन द्वारा स्वाली या स्वाळी नामक जगह पर पुर्तगालियों के जहाजी बेड़े को हराकर भगा दिया जिसके परिणामस्वरूप 1613 ई. में जहांगीर ने फरमान जारी कर अंग्रेजों को सूरत में स्थायी व्यापारिक कोठी बनाने की आज्ञा दे दी। ईस्ट इंडिया कंपनी द्वारा 1613 ई. में पहला कारखाना सूरत में स्थापित किया गया था। अंग्रेजों द्वारा पहली व्यापारिक कोठी 1611 ई. में मुसलीपट्टनम में खोली गयी थी।

23 जून, 1757 ई. में हुए प्लासी के युद्ध के बाद अंग्रेजों का भारत पर पूर्णतः प्रभुत्व हो गया था। प्लासी का युद्ध ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी तथा बंगाल के नवाब सिराज़ुद्दौला के बीच हुआ था, जिसमें अंग्रेज सेना का नेतृत्व राबर्ट क्लाइव द्वारा किया गया था, ततपश्चात 22 अक्टूबर, 1764 में हुए बक्सर के युद्ध में अंग्रेजों की जीत के बाद भारत में कोई भी ऐसी राजनितिक शक्ति या शासक शेष नहीं बचा जो अंग्रेजों को हरा सके। बक्सर का युद्ध बक्सर नगर के पास ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी और मुगल नवाबों (बंगाल के नबाब मीर कासिम, अवध के नबाब शुजाउद्दौला, तथा मुगल बादशाह शाह आलम द्वितीय की संयुक्त सेना) के बीच लड़ा गया था। इस युद्ध में अंग्रेजों का नेतृत्व मेजर हेक्टर मुनरों ने किया था।

अंग्रेजों ने कई अन्य महत्वपूर्ण युद्ध और संधियां की जिसके फलस्वरूप 1947 ई. में अंग्रेजों से भारत की स्वतंत्रता तक, अंग्रेजों का भारत पर एक छत्र राज रहा। यूरोपीय कंपनियों में अंग्रजों ने भारत पर सर्वाधिक शासन किया। अंग्रेजों ने लगभग 200 वर्षों तक भारत पर राज किया।

अंग्रेजों द्वारा क्रमशः सूरत, मद्रास (वर्तमान चेन्नई), बंबई (वर्तमान मुंबई) तथा कलकत्ता (वर्तमान कोलकाता) में अपने व्यापार केंद्र स्थापित किये गए थे। अंग्रेजों का उद्देश्य भारत में गन्ना, अफीम, चाय, कहवा, पटसन आदि की खेती कर इनकों सस्ते दामों पर खरीदकर इंग्लैंड भेजना था। जिस कारण अंग्रेजों ने भारत में महत्वपूर्ण क्षेत्रों में रेल लाइन बिछायीं तथा सड़कों का निर्माण भी करवाया। साथ ही अंग्रेजों का उद्देश्य ब्रिटेन से भारत में आयातित किये गए महंगे कपड़ों को भारत में बेचना भी था।

फ्रांसीसी

1664 ई. में लुई 14 के शासनकाल में कॉलबर्ट द्वारा ‘फ्रेंच ईस्ट इंडिया कंपनी‘ की स्थापना की थी। 1668 ई. में फ़्रांसिसी कैरो द्वारा औरंगजेब से आज्ञा प्राप्त कर सूरत में फ्रांसीसियों ने पहली फैक्ट्री स्थापित की थी। 1669 ई. में फ्रांसीसियों ने गोलकुण्डा के सुल्तान की स्वीकृति प्राप्त करके मूसलीपट्ट्नम में अपनी दूसरी फ़ैक्ट्री स्थापित की थी।

फ्रांसिस मार्टिन ने 1673 ई. में बलिकोंडापुरम के सूबेदार से एक छोटा गांव प्राप्त कर पांडिचेरी की नींव रखी। 1774 ई. में बंगाल के सूबेदार शाइस्ताखान ने चंद्रनगर में कोठी बनाने की आज्ञा प्रदान की। 1742 ई. में फ्रांसीसी गवर्नर डूप्ले द्वारा फ़्राँसीसी शक्ति बढ़ाने और भारतीय राज्यों पर कब्ज़ा करने के कारण फ्रांसीसी और अंग्रेजों में संघर्ष प्रारम्भ हो गया फलस्वरूप इन दोनों के मध्य तीन युद्ध हुए जिन्हें कर्नाटक युद्ध के नाम से जाना जाता है।

सभी यूरोपीय कंपनियों का भारत में आगमन व्यापार हेतु हुआ था लेकिन धीरे-धीरे उनकी लालसा और लालच इतना बढ़ गया कि उन्होने साम, दाम, दण्ड-भेद जैसे सभी तरीके अपनाकर अपने व्यवसाय की जड़ें मजबूत करने की कोशिश की। इन सब में अंग्रेजों की नीतियों और कार्यकुशलता के कारण उन्होंने भारत पर सर्वाधिक वर्षों तक राज किया।

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13 Comments

    • प्रिय मित्र,

      हमें बहुत खुशी है कि आपने ऊपर दी गयी जानकारी को काफी ध्यान देकर पड़ा है जिस कारण से आप उसमें कुछ खामियां ढूढ़ पाये। इसके लिए आपका बहुत बहुत धन्यवाद। जहां तक आपके द्वारा पूछे गये सवाल का जवाब है तो वो निम्नवत है –

      1509 ई0 में अलफांसो-डि-अल्बुकर्क भारत में पुर्तगाली गवर्नर बनकर जरूर आया था पर इसका यह मतलब नहीं है कि वो इससे पहले भारत आया ही नहीं था। वो पहले से ही न सिर्फ भारत में रह रहा था बल्कि पूर्व फ्रांसिसी गवर्नर फ्रांसिस्को-डि-अल्मीडा के कार्यकाल में (1505-1509) उसके उप-सहयोगी की तरह कार्य भी कर रहा था, इसी दौरान उसने 1503 ई0 में कोचीन में दुर्ग का निर्माण करवाया था।

      नोट- आप खुद ही सोचिये कि क्या कोई भी उपनिवेशी सरकार किसी ऐसे व्यक्ति को भारत का गवर्नर बना कर भेज सकती हैं जोकि पहले कभी भारत आया ही न हो, जिसे वहां की भौगोलिक जानकारी ही न हो।

      इस वेबसाइट के माध्यम से हमारा मकसद इतिहास को स्नातक/स्नातकोत्तर स्तर पर बताना नहीं है बल्कि प्रतियोगी परीक्षाओं के नजरिये से केवल मुख्य बातों को बताना है। जिससे अधिक से अधिक विद्यार्थी लाभान्वित हो सकें। अगर आप स्नातक/स्नातकोत्तर स्तर की किताबों का अध्ययन करेंगे तो इस बात को भली भांति समझेंगे।

      धन्यवाद..!!

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