वर्द्धन या वर्धन वंश तथा पुष्यभूति वंश

वर्द्धन या वर्धन वंश तथा पुष्यभूति वंश

गुप्त वंश के पतन के पश्चात छठी शताब्दी ईसा पूर्व के आस-पास ‘पुष्यभूति‘ नामक शासक ने ‘वर्द्धन या वर्धन वंश’ की स्थपना की थी। वर्द्धन या वर्धन वंश को ‘पुष्यभूति वंश’ भी कहा जाता है। इसकी राजधानी थानेश्वर थी। इस वंश का सबसे महान और ख्याति प्राप्त राजा हर्षवर्धन था। हर्षवर्धन को शिलादित्य के नाम से भी जाना जाता था, ये हर्षवर्धन की उपाधि थी।

हर्षवर्धन उत्तर भारत का अंतिम महान हिन्दू शासक था। जिसने अपना राज्य पुरे उत्तर भारत में फैलाकर एक विशाल साम्राज्य की स्थापना की थी। हर्षवर्धन ने थानेश्वर और कन्नौज को एक कर अपनी राजधानी को थानेश्वर से कन्नौज स्थानांतरित किया था। हर्षवर्धन का विशाल साम्राज्य पूर्व में कामरूप (असम स्थित एक प्राचीन राज्य) से लेकर पश्चिम में सौराष्ट्र (गुजरात का एक क्षेत्र) तक तथा उत्तर में हिमालय से लेकर दक्षिण में विंध्य पर्वत तक फैला हुआ था।

हर्षवर्धन बौद्ध धर्म की महायान शाखा का अनुयायी था, अतः उसने जनहितकारी और लोगों की उन्नति हेतु कई कार्य किये। हर्षवर्धन ने प्रयाग (उत्तर प्रदेश) में बौद्ध महासम्मेलन का भी आयोजन किया था। हर्षवर्धन अपनी धार्मिक सभाएं लगभग हर 5 वर्ष के अंतराल में प्रयाग में ही आयोजित किया करता था। जिसे ‘महामोक्षपरिषद‘ कहा जाता था जिसकी समयावधि 75 दिनों की हुआ करती थी। ऐसी भी जनश्रुति है कि हर्षवर्धन अपनी सम्पूर्ण संपत्ति इस परिषद् में दान कर दिया करता था। इसीलिए हर्षवर्धन के दान देने के गुण के कारण ही उसे ‘हातिम‘ कहा जाता था।

हर्षवर्धन एक विद्वान व्यक्ति था, उसने ‘प्रियदर्शिका‘, ‘नागानंद या नागनन्दिन‘ तथा ‘रत्नावली‘ नामक तीन संस्कृत नाट्य ग्रंथों की रचना की थी।

हर्षवर्धन के दरबार में बाणभट्ट, मयूर दिवाकर, हरिदत्त एवं जयसेन जैसे विद्वान विराजते थे। राजकवि बाणभट्ट ने हर्षवर्धन की जीवनी ‘हर्षचरित्र या हर्षचरितम्‘ की रचना की थी, जिसमें हर्षवर्धन काल की जानकारियां निहित हैं। इसके अलावा बाणभट्ट ने संस्कृत साहित्य के महान उपन्यास ‘कादम्बरी‘ की रचना भी की थी।

हर्षवर्धन के शासनकाल में प्रसिद्ध चीनी यात्री ह्वेनसांग (ह्वेन त्सांग) भारत की यात्रा पर आया था। जिसने ‘सी-यू-की‘ नामक पुस्तक की रचना की थी, जिसमें हर्षकालीन भारत की सामाजिक, आर्थिक, धार्मिक तथा सांस्कृतिक अवस्था का परिचय मिलता है। ह्वेनसांग को ‘यात्रियों में राजकुमार‘, ‘निति का पंडित‘ और ‘शाक्य मुनि‘ आदि नामों से भी जाना जाता है। ह्वेनसांग के सम्मान में हर्षवर्धन ने ‘कन्नौज सभा‘ का आयोजन किया था।

चीनी यात्री ह्वेनसांग ने नालंदा विश्वविद्यालय में भी अध्ययन किया था। हर्षवर्धन के समय नालंदा विश्वविद्यालय का कुलपति ‘शीलभद्र‘ था। हर्षवर्धन काल में नालंदा विश्वविद्यालय अपने चरमोत्कर्ष पर था। साथ ही ह्वेनसांग की भारत यात्रा के समय या यूँ कहा जाये कि हर्षवर्धन के समय मथुरा नगर सूती वस्त्र उत्पादन के लिये सबसे प्रसिद्ध नगर माना जाता था।

हर्षवर्धन के राज में किसानों द्वारा भूमि राजस्वकर स्वरूप कुल उपज का छठा हिस्सा राजा को देना होता था। भूमि देने की सामंती प्रथा की शुरुआत भी हर्षवर्धन द्वारा ही की गयी थी।

हर्षवर्धन की मृत्यु के बाद इसका राज्य छिन्न-भिन्न हो गया और हर्षवर्धन अंतिम हिन्दू शासक के रूप में जाना गया। साथ ही हर्षवर्धन को अंतिम बौद्ध शासक और संस्कृत के महान विद्वान व लेखक के रूप में भी जाना जाता है। हर्षवर्धन के पश्चात कोई भी हिन्दू शासक इतिहास के पन्नों में अपनी छाप नहीं छोड़ सका।

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