अरस्तु कौन थे - अरस्तु के सिद्धांत, अरस्तु के अनुसार राज्य का महत्व

अरस्तु कौन थे – अरस्तु के सिद्धांत, अरस्तु के अनुसार राज्य का महत्व

अरस्तु कौन थे, अरस्तु का जन्म कब हुआ था, अरस्तु का सिद्धांत, अरस्तु का न्याय सिद्धांत, अरस्तु के अनुसार राज्य का महत्व क्या है, अरस्तु के राज्य का वर्गीकरण, अरस्तु के अनुसार शिक्षा की परिभाषा, स्वास्थ्य के संबंध में अरस्तु ने क्या कहा है, अरस्तु के क्रांति संबंधी विचार, अरस्तु के राजनीतिक विचार, अरस्तु के अनुसार सद्गुण की परिभाषा दीजिए, अरस्तु के विचारों की विशेषताओं की व्याख्या कीजिए, अरस्तु के अनुसार राज्य के उद्देश्य और कार्य बताइए, अरस्तू द्वारा दिए गये संविधानों के वर्गीकरण की विवेचना आदि प्रश्नों के उत्तर यहाँ दिए गए हैं।

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अरस्तु कौन थे

अरस्तु (Aristotle) यूनान के प्रसिद्ध दार्शनिक व्यक्ति थे जिनका जन्म 384 ईसा पूर्व में ग्रीस के स्टैगिरा (Stagira), नामक नगर में हुआ था। अरस्तु ने अपने जीवन काल में आध्यात्मिक, नाटकीय, संगीत, तर्कशास्त्र, नीति शास्त्र, राजनीति शास्त्र, भौतिकी आदि विषयों की रचना की थी जिसे इनकी महत्वपूर्ण रचना भी माना जाता है। अरस्तु भी प्लेटो एवं सुकरात की भांति ही एक महान दार्शनिक व्यक्ति थे। केवल इतना ही नहीं इन्हें विश्व के बड़े विचारकों में से एक माना जाता था। अरस्तु के अनुसार पृथ्वी ब्रह्मांड के केंद्र में स्थित है जो केवल जल, वायु, अग्नि एवं मिट्टी जैसे तत्वों से बनी है। अरस्तु का मानना था कि सूर्य, चंद्रमा एवं ब्रह्मांड में मौजूद अनगिनत सितारे ईश्वर का प्रतीक हैं जो पांचवें तत्व से बने हुए हैं। उनके इस विचारधारा के कारण समाज में उनका प्रभाव काफी गहरा पड़ा था।

अरस्तु का जन्म कब हुआ था

अरस्तु का जन्म 384 ईसा पूर्व में यूनान के एक शहर में हुआ था। उनका जन्म एक सामान्य परिवार में हुआ था। अरस्तु के पिता का नाम निकोमाकस था जो पेशे से एक राजवैद्य का कार्य करते थे एवं इनकी माता का नाम फैस्टिस था जो एक ग्रहणी थी।

अरस्तु का सिद्धांत

अरस्तु ने कई प्रकार के सिद्धांत दिए जो कुछ इस प्रकार है:-

  • अनुकरण सिद्धांत
  • विरेचन सिद्धांत
  • सामाजिक विचार
  • न्याय का सिद्धांत
  • राज्य की अवधारणा

अनुकरण सिद्धांत

अरस्तु के अनुकरण सिद्धांत के अनुसार सामाजिक वस्तुओं की नकल करना कोई साधारण प्रक्रिया नहीं बल्कि एक रचनात्मक प्रक्रिया है जिसके लिए काल्पनिक शक्ति का होना अत्यंत आवश्यक होता है। अनुकरण सिद्धांत के अनुसार कला प्रकृति की एक अनुकृति है। अरस्तु कहते हैं कि किसी भी वस्तु का अनुकरण करने के लिए तीन मुख्य बातों का विशेष ध्यान रखना चाहिए जैसे की एक वस्तु जैसे थी या है, जैसी हो सकती है एवं जैसी होनी चाहिए। अरस्तु ने एक वस्तु का इन तीन रूपों में अनुकरण किया था।

विरेचन सिद्धांत

अरस्तु ने विरेचन सिद्धांत द्वारा यह प्रतिपादित करने का प्रयास किया कि कला एवं साहित्य के द्वारा मानवों के दूषित मनोविकारों का विरेचन होता है। अरस्तु का मानना था कि विरेचन द्वारा मनुष्यों का भावनात्मक परिष्कार होता है। यह न केवल मानव के अंदर करुणा एवं त्रास के भाव को दर्शाता है बल्कि इसके द्वारा व्यक्ति हर प्रकार के आनंद का अनुभव भी कर पाता है।

सामाजिक विचार

अरस्तु द्वारा दिए गए सामाजिक विचारधारा मुख्य रूप से पुरुषों के हित में कार्य करती है जिसके कारण इसकी कई मायनों में आलोचना भी की जाती है। इसके अंतर्गत राज्य व नागरिक को कई प्रकार के अधिकार एवं दायित्व दिए गए हैं जो महिला वादियों की दृष्टिकोण से उचित नहीं है। महिला वादियों के अनुसार अरस्तु महिलाओं को पुरुषों की तुलना में अपूर्ण मानते थे जिसके कारण वे इसका विरोध करते थे।

अरस्तु का न्याय सिद्धांत

अरस्तु का मानना था कि न्याय व्यवस्था राज्य एवं जनता का प्रमुख सद्गुण है। अरस्तु ने अपने दिए गए न्याय के सिद्धांतों को दो भागों में विभाजित किया था पहला अनुपातिक न्याय सिद्धांत एवं दूसरा सुधारात्मक न्याय सिद्धांत। अनुपातिक न्याय सिद्धांत में लोगों की योग्यता के अनुसार उन्हें फल की प्राप्ति होती है एवं सुधारात्मक न्याय के अंतर्गत नागरिकों को अपराध के लिए दंड देने का प्रावधान किया जाता है।

राज्य की अवधारणा

अरस्तु ने राज्य को एक स्वाभाविक संस्था माना है जो एक ऐतिहासिक विकास का परिणाम है। अरस्तु ने राज्य को एक सामयिक संगठन और व्यक्ति को उसकी एक इकाई माना है जिसको राज्य से अलग नहीं किया जा सकता। संक्षेप में कहा जाये तो अरस्तु ने व्यक्ति को राज्य में मिला दिया है। अरस्तु का मानना था कि मनुष्य एक सामाजिक और राजनीतिक प्राणी है, अत: वह एकाकी जीवन व्यतीत नहीं कर सकता है। मनुष्य भी अन्य जीवों की भाँति अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए दूसरों पर निर्भर रहता है लेकिन अन्य जीवों की तुलना में मनुष्य अधिक सामाजिक होता है।

अरस्तु के अनुसार राज्य का महत्व क्या है

अरस्तु के अनुसार एक राज्य का विकास नागरिक, समाज, ग्राम एवं परिवार के विकसित होने के कारण होता है। उनका मानना था कि राज्य का एकमात्र दायित्व नागरिकों का कल्याण करना होता है। इसके अलावा राज्य के निर्देशों का पालन करना भी जनता का ही दायित्व होता है। अरस्तु कहते थे कि एक राज्य का दायित्व केवल जीवन व्यतीत करने के लिए नहीं बल्कि जीवन को उत्तम बनाने के लिए भी होता है। एक उत्तम राज्य प्रत्येक नागरिक को वास्तव में पूर्ण मनुष्य बनाता है।

अरस्तु के अनुसार राज्य की प्रकृति एवं विशेषताएँ

  • अरस्तु के अनुसार राज्य सर्वोच्च समुदाय होता है।
  • राज्य व्यक्ति से पहले है।
  • राज्य एक आत्म-निर्भर संस्था है।

अरस्तु के अनुसार राज्य के कार्य और लक्ष्य

  • अरस्तु के अनुसार राज्य का कार्य नागरिकों का कल्याण करना होना चाहिए।
  • राज्य में समाज में अच्छाई को प्रोत्साहन देना।
  • मनुष्य में सर्वोत्तम गुणों का विकास करना।
  • बौद्धिक और नैतिक आवश्यकताओं की संतुष्टि करना।
  • अवकाशपूर्ण जीवन व्यतीत करना।

अरस्तु के राज्य का वर्गीकरण

अरस्तु के अनुसार मनुष्य एक राजनीतिक एवं सामाजिक विचारधाराओं वाला प्राणी है। उनका मानना था कि व्यक्ति का अस्तित्व एक राज्य की सीमा में ही संभव होता है। वह कहते थे कि राज्य एक मनुष्य द्वारा निर्मित ऐसी स्वाभाविक संस्था है जो एक ऐतिहासिक विकास का परिणाम है। अरस्तु राज्य को एक सामाजिक संस्था मानकर व्यक्ति को उसकी एक इकाई मानते थे जिसे राज्य से कभी अलग नहीं किया जा सकता। साधारण भाषा में कहा जाए तो अरस्तु व्यक्तियों को राज्य का एक महत्वपूर्ण अंश मानते थे।

अरस्तु के अनुसार शिक्षा की परिभाषा

अरस्तु के अनुसार शिक्षा एक व्यक्ति की मानसिक शक्ति का विशेष रूप से विकास करने का कार्य करती है जिसके माध्यम से वह ईश्वर की उपस्थिति का आनंद उठा सकता है। अरस्तु के दृष्टिकोण से शिक्षा एक ऐसी कला है जिसका संबंध व्यवहारिक एवं सामाजिक जीवन से होता है। वह शिक्षा पद्धति को राजनीति का एक महत्वपूर्ण अंग मानते थे। अरस्तु ने मनुष्यों के मानसिक, बौद्धिक एवं क्रियात्मक पक्ष को बेहद सहजता पूर्वक समझाने का प्रयास किया था। उनका मानना था कि शिक्षा का उद्देश्य परमसुख की प्राप्ति करना होता है जिसके लिए व्यक्ति जीवन भर अनेकों प्रयत्न करते हैं। अरस्तु कहते थे कि व्यक्तियों द्वारा लिया गया कोई भी संकल्प मनोदशा के रूप को नहीं बल्कि क्रियात्मक मनोदशा के रूप को दर्शाता है। अरस्तु मानते थे कि एक राज्य का कर्तव्य वह होता है जो वास्तव में शिक्षा की व्यवस्था को बेहतर ढंग से लागू करता है जिससे व्यक्तियों को समाज का कल्याण करने का अवसर प्राप्त होता है।

स्वास्थ्य के संबंध में अरस्तु ने क्या कहा है

अरस्तु ने कहा था कि जिस प्रकार बेहतर स्वास्थ्य के लिए शारीरिक मल का निष्कासन करना आवश्यक होता है उसी प्रकार स्वास्थ्य शरीर के लिए द्वेष, लोभ, ईर्ष्या, क्रोध, मोह आदि मानसिक मल का निष्कासन करना भी अत्यंत आवश्यक होता है। अरस्तु के अनुसार इन नकारात्मक भावनाओं का त्याग करने से व्यक्ति का जीवन निरोग एवं सुखमय होता है।

अरस्तु के क्रांति संबंधी विचार

अरस्तु के अनुसार क्रांति का अर्थ केवल हिंसा करना नहीं होता बल्कि क्रांति का अर्थ राज्य की आर्थिक, राजनीतिक एवं सामाजिक व्यवस्था में परिवर्तन करना होता है। अरस्तु का मानना था कि क्रांति के कारण समाज में कई प्रकार के परिवर्तन लाए जा सकते हैं जिससे राज्य व्यवस्था सुचारू रूप से नागरिकों के हित में कार्य कर सके। अरस्तु मानते थे कि क्रांति का उद्देश्य शासन व्यवस्था की नीतियों में परिवर्तन करना होता है। इसका प्रभाव शासन करने वाले सत्ताधारी व्यक्तियों पर भी सामान्य रूप से पड़ता है। अरस्तु कहते थे कि क्रांति के कारण राज्य की व्यवस्था प्रणाली को प्रभावशील (effective) एवं यथार्थवादी बना सकते हैं। अरस्तु ने क्रांति को पांच निम्नलिखित भागों में विभाजित किया था जो कुछ इस प्रकार हैं:-

  • रक्तहीन या रक्तपूर्ण क्रांति
  • व्यक्तिगत या गैर-व्यक्तिगत क्रांति
  • पूर्ण या आंशिक क्रांति
  • वाग्वीरों की क्रांति
  • विशेष वर्ग के विरुद्ध क्रांति

रक्तहीन या रक्तपूर्ण क्रांति

अरस्तु के अनुसार यदि हिंसावादी क्रांति के कारण संविधान में परिवर्तन होता है तो उसे रक्तपूर्ण क्रांति के नाम से जाना जाता है। और यदि किसी क्रांति में देश के संविधान या शासन प्रणाली का परिवर्तन अहिंसावादी क्रांति के कारण होता है तो उसे रक्तहीन क्रांति कहा जाता है। इस प्रकार देश के संविधान या शासन व्यवस्था में कड़े नियमों को लागू कर कई बदलाव किए जाते हैं।

व्यक्तिगत या गैर-व्यक्तिगत क्रांति

अरस्तु का मानना था कि यदि किसी व्यक्ति को पदच्युत करने के कारण संविधान में परिवर्तन होता है तो उसे व्यक्तिगत क्रांति कहते हैं। वहीं अगर किसी देश के संविधान में अवैयक्तिक प्रभाव के कारण परिवर्तन किया जाता है तो उसे गैर-व्यक्तिगत क्रांति के नाम से जाना जाता है।

पूर्ण या आंशिक क्रांति

जब किसी क्रांति के कारण एक देश का संविधान पूर्ण रूप से बदल दिया जाता है तो उसे पूर्ण क्रांति कहते हैं। और यदि किसी क्रांति के कारण देश के संविधान के केवल किसी महत्वपूर्ण अंग में बदलाव किया जाता है तो उसे आंशिक क्रांति के नाम से जाना जाता है। पूर्ण क्रांति के अंतर्गत एक राज्य का सामाजिक, राजनीतिक एवं आर्थिक स्वरूप को प्रशासनिक रूप से बदल दिया जाता है।

वाग्वीरों की क्रांति

अरस्तु के अनुसार वग्वीरों की क्रांति के अंतर्गत वग्वीरों एवं नेताओं द्वारा अपनी महत्वाकांक्षाओं को पूरा करने हेतु लोक लुभावन नारों को समाज में प्रचलित किया जाता है। इस प्रकार की क्रांति के कारण देश की व्यवस्था प्रणाली में कई बदलाव किए जाते हैं।

विशेष वर्ग के विरुद्ध क्रांति

विशेष वर्ग के विरुद्ध क्रांति का निर्वाहन आमतौर पर निर्धन व्यक्तियों द्वारा किया जाता था जिनका उद्देश्य राजतंत्र एवं विशेष वर्ग के विरुद्ध विद्रोह करना होता है। सामान्य या निम्न वर्ग के लोगों का मानना था कि देश की शासन प्रणाली मुख्य रूप से विशेष वर्ग के लोगों के अधीन रहकर कार्य करती थी जिसके फलस्वरुप उन्होंने इस क्रांति की शुरुआत की। निर्धन व्यक्तियों द्वारा किए जाने वाले इस क्रांति को जनतंत्र क्रांति भी कहा जाता है।

अरस्तु के राजनीतिक विचार

अरस्तु को राजनीतिक विज्ञान का जनक कहा जाता था क्योंकि उनके राजनीतिक विचार समाज कल्याण हेतु बेहद उपयोगी एवं महत्वपूर्ण माने जाते हैं। अरस्तु ने राजनीति शास्त्र को व्यवस्थित कर राजनीतिक क्षेत्र को निर्धारित करने का कार्य किया था। इन्होंने राजनीति के विषय पर पूर्ण अध्ययन करने के बाद एक वैज्ञानिक पद्धति को जन्म दिया जिसका राजनीति क्षेत्र पर सकारात्मक रूप से प्रभाव पड़ा। कई इतिहासकारों का मानना है कि अरस्तु ने राजनीतिक क्षेत्र में बहुत बड़ा योगदान दिया था जिसके कारण उन्हें राजनीति का जन्मदाता भी कहा जाता है। अरस्तु ने अपने जीवन काल में राज्य व्यवस्था एवं राजनीतिक विज्ञान को स्वतंत्र विज्ञान की उपाधि दिलाई थी जिसके कारण उन्हें राजनीति के क्षेत्र में एक महत्वपूर्ण स्थान मिला।

अरस्तु ने राजनीतिक क्षेत्र को बेहतर बनाने हेतु सर्वप्रथम राजनीति के प्रति एक वैज्ञानिक दृष्टिकोण को अपनाया था। इसके लिए अरस्तू ने 158 देशों के संविधानों का अध्ययन भी किया था। उन्होंने अपने द्वारा रचे गए महान ग्रंथ ‘पॉलिटिक्स’ में सर्वप्रथम पर्यवेक्षक एवं तुलनात्मक पद्धति का सहारा लिया था। अरस्तु ने राजनीतिक क्षेत्र के विकास हेतु देश के संविधान, नागरिकता कानून, राज्य का स्वरूप आदि महत्वपूर्ण विषयों पर शोध किया था जिसके कारण उन्हें संविधानवाद (Constitutionalism) का जनक भी कहा जाता है।

अरस्तु के अनुसार सद्गुण की परिभाषा दीजिए

अरस्तु कहते हैं कि मनुष्य के जीवन में सद्गुण एक ऐसी स्थाई मानसिक अवस्था है जो व्यक्ति के निरंतर अभ्यास के परिणाम स्वरूप विकसित होता है। यह व्यक्ति के स्वैच्छिक कार्यों के द्वारा व्यक्त होता है। इसके अलावा सद्गुण की भावना प्रत्येक मनुष्य की इच्छा को किसी न किसी रूप से नियंत्रित करने का कार्य भी करता है जैसे वासना, भय, साहस इत्यादि। उन्होंने सद्गुणों के संबंध में मध्यमार्ग का एक नया सिद्धांत प्रतिपादित किया है जिसके अनुसार प्रत्येक नैतिक सद्गुण को अतिवादी दृष्टिकोण के बीच की एक अवस्था बताया गया है।

अरस्तु ने सद्गुण को दो वर्गों में परिभाषित किया है बौद्धिक सद्गुण एवं नैतिक सद्गुण। अरस्तु के अनुसार बौद्धिक सद्गुण व्यक्ति को सही या गलत में अंतर नहीं करने देता परंतु नैतिक सद्गुण व्यक्ति को सही कार्य करने हेतु प्रोत्साहित करता है। इसके कारण व्यक्ति की अंतरात्मा का बौद्धिक एवं भावनात्मक आधार पर वर्गीकरण हो जाता है। एक व्यक्ति का भावनात्मक पक्ष वासना से संबंधित है जो मनुष्यों के साथ-साथ पशुओं में भी विद्यमान होता है। परंतु बौद्धिक पक्ष के अंतर्गत मनुष्य अन्य प्राणियों से स्वयं को अलग एवं बेहतर बना सकता है।

अरस्तु के विचारों की विशेषताओं की व्याख्या कीजिए

अरस्तु ने अपने जीवन काल में कई क्षेत्र में अपनी विचारधाराओं को व्यक्त किया था जो एक बेहतर समाज की स्थापना हेतु अत्यंत उपयोगी माने जाते हैं। अरस्तु ने आध्यात्मिक, कविता, तर्कशास्त्र, संगीत, राजनीति शास्त्र, भौतिकी, जीव विज्ञान आदि सहित कई विषयों पर महत्वपूर्ण रचनाएं की हैं। कुछ इतिहासकारों के अनुसार उनके द्वारा लिखे गए ग्रंथों की संख्या लगभग 400 से अधिक मानी जाती है। अरस्तू के विचार व्यक्तिगत रूप से बेहद प्रभावशाली साबित हुए थे। उनका मानना था कि पचास दुश्मनों का मुकाबला करने के लिए केवल आपका एक सच्चा मित्र ही काफी होता है। इस कथन के द्वारा उन्होंने मित्रता के भाव को बेहद महत्वपूर्ण कारक बताया था।

अरस्तु के अनुसार राज्य के उद्देश्य और कार्य बताइए

अरस्तु के दृष्टिकोण से एक आदर्श राज्य का उद्देश्य नागरिकों का कल्याण करना होता है। उनके अनुसार एक राज्य व्यक्ति के कल्याण हेतु एक साधन के रूप में कार्य करता है जिसके द्वारा व्यक्ति को जीवन संचालन करने की स्वतंत्रता प्राप्त होती है। अरस्तू का राज्य संबंधी दृष्टिकोण अन्य व्यक्तिवादियों से बहुत अलग है। इनके अनुसार राज्य के कार्य लक्ष्य के दृष्टिकोण से बेहद सकारात्मक एवं रचनात्मक हैं। अरस्तु का मानना था कि एक आदर्श राज्य अपने नागरिकों को उत्तम गुण विकसित करने का हर अवसर प्रदान करता है जिसके द्वारा नागरिकों में सद्गुण की भावना का जन्म होता है। इसके अलावा अरस्तु के अनुसार एक राज्य का कार्य व्यक्तियों की बौद्धिक एवं नैतिक आवश्यकताओं को पूरा करना भी होता है।

अरस्तू द्वारा दिए गये संविधानों के वर्गीकरण की विवेचना कीजिये

अरस्तु द्वारा दिए गए संविधान मुख्य रूप से गुण एवं परिणामों पर आधारित है। अरस्तु ने संविधान का वर्गीकरण मुख्य रूप से शासकों की संख्या एवं शासकों के स्वरूप के आधार पर किया है। शासकों की संख्या के आधार पर अरस्तु ने इस बात की पुष्टि की है कि संविधान कितने व्यक्तियों द्वारा संचालित किया जाता है एवं उसमें जनता का कितना सहयोग है। वहीं शासन के स्वरूप के अंतर्गत अरस्तु ने इस बात को दर्शाया है कि शासन का संचालन कानूनी रूप से जनता के हित में उपयोगी है अथवा नहीं।

अरस्तु ने संविधान के वर्गीकरण को छ: भाग में विभाजित किया है जो कुछ इस प्रकार हैं:-

  • लोकतंत्र
  • एकतंत्र
  • वर्गतंत्र
  • निरंकुश तंत्र
  • कुलीनतंत्र
  • भीड़तंत्र

लोकतंत्र

अरस्तु के अनुसार जनता के द्वारा संपूर्ण शासन करने की प्रक्रिया को लोकतंत्र कहा जाता है। यह जनता को मूल रूप से स्वतंत्रता प्रदान करने का कार्य करता है। इसके द्वारा शासन प्रणाली निस्वार्थ भाव से जनता के हित में कार्य करती हैं जिसके कारण इसका स्वरूप और अधिक विकसित हो जाता है।

एकतंत्र

अरस्तु का कहना था कि एकतंत्र ऐसी व्यवस्था है जिसके अंतर्गत राज्य की अधिकांश शक्तियां किसी एक व्यक्ति के द्वारा संचालित की जाती हैं जैसे कोई राजा या तानाशाह।

वर्ग तंत्र

वर्ग तंत्र एक ऐसी व्यवस्था है जिसमें किसी एक वर्ग के व्यक्तियों का शासन भ्रष्ट हो जाता है। इसके अंतर्गत कुलीन वर्ग के लोगों के अधिकारों का खंडन होता है।

निरंकुश तंत्र

अरस्तु के अनुसार जब शासक वर्ग के लोग जनता के प्रति अत्याचार एवं स्वार्थ की भावना से कोई कार्य करते हैं तो इस स्थिति में एकतंत्र दूषित हो जाता है इसे निरंकुश तंत्र के नाम से जाना जाता है।

कुलीन तंत्र

अरस्तु के कथनानुसार जब किसी समूह या व्यक्तियों के द्वारा शासन का संचालन किया जाता है तो वह शासन प्रणाली कुलीन तंत्र कहलाती है। इसमें निम्न वर्ग के लोग, दलित वर्ग के लोग एवं किसी वंश का शोषण किया जाता है।

भीड़ तंत्र

अरस्तु के अनुसार भीड़ तंत्र एक ऐसा तंत्र होता है जिसमें भीड़ के द्वारा शासन का निर्वाहन किया जाता है। इसके कारण एक सभ्य समाज का अंत हो जाता है। इसके अलावा भीड़ तंत्र के कारण संपूर्ण मानव जाति कई प्रकार से प्रभावित होती है जिससे शासन व्यवस्था अधिक चुनौतीपूर्ण हो जाती है। भीड़ तंत्र किसी भी कानून व्यवस्था को नहीं मानता एवं खुद के द्वारा शासन की परिभाषाओं को बनाता एवं मिटाता है। अरस्तु का मानना था कि भीड़ तंत्र किसी भी देश की शांति व्यवस्था को बिगाड़ सकती है।

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