देवकीनन्दन पाण्डे – कुमाऊँ के गाँधी

देवकीनंदन पाण्डे (Devkinandan Pandey) का जन्म कानपुर में हुआ था। देवकीनंदन पाण्डे के पिता शिवदत्त पाण्डे अपने क्षेत्र के जाने-माने डॉक्टर थे। देवकीनन्दन पाण्डे को कुमाऊँ के गाँधी (Gandhi of Kumaon) नाम से भी जाना जाता है।

Devkinandan Pandey
Devkinandan Pandey

 मूलरूप से देवकीनंदन पाण्डे का परिवार कुमाऊँ का रहने वाला था। देवकीनंदन पाण्डे अपने स्कूली दिनों में मेधावी छात्र नहीं रहे लेकिन वे कभी भी अपनी कक्षा में फेल नहीं हुए। घूमने-फिरने, नाटक करने और खेलकूद में उनकी गहन दिलचस्पी थी। पाठ्य पुस्तके उन्हें कभी भी रास नहीं आईं किंतु नाटक, उपन्यास, कहानियॉं, जीवन चरित्र और इतिहास की पुस्तकें उन्हें हमेशा से आकर्षित करती थीं। उनकी आरंभिक शिक्षा अल्मोड़ा में हुई। देवकीनंदन पाण्डे के पिता पुस्तकों के अनन्य प्रेमी थे। इस वजह से घर में किताबों का अच्छा ख़ासा संकलन था जिससे देवकीनंदन को पठन-पाठन में दिलचस्पी होने लगी।

कॉलेज के दिनों में उनके अंग्रेजी के अध्यापक विशंभर दत्त भट्ट देवकीनंदन को रंगमंच के लिये प्रोत्साहित करने लगे। अल्मोड़ा (Almora) में देवकीनंदन ने कई दर्ज़न नाटकों में हिस्सा लिया इससे उनके आत्मविश्वास में मज़बूती आई। 40 के दशक में अल्मोड़ा जैसी छोटी जगह में केवल दो रेडियो थे। एक स्कूल के अध्यापक के घर और दूसरा एक व्यापारी के घर। युवा देवकीनंदन पाण्डे को दूसरे महायुद्ध के समाचारों को सुनकर बहुत रोमांच होता। वे प्रतिदिन सारा काम छोड़कर समाचार सुनने जाते। उन दिनों जर्मनी रेडियो के दो प्रसारकों लॉर्ड हो हो और डॉ. फ़ारूक़ी का बड़ा नाम था। दोनों लाजवाब प्रसारणकर्ता थे। उनकी आवाज़ हमेशा देवकीनंदन पाण्डे के दिलो-दिमाग़ में छाई रही। सन् 1941 में बी.ए. करने के लिए देवकीनंदन इलाहाबाद चले आए जहाँ का इलाहाबाद विश्वविद्यालय पूरे देश में विख्यात था।

1943 में देवकीनंदन ने लखनऊ में एक सरकारी नौकरी कर ली और केज्युअल आर्टिस्ट के रूप में एनाउंसर और ड्रामा आर्टिस्ट हेतु उनका चयन रेडियो लखनऊ पर हो गया। इस स्टेशन पर उर्दू प्रसारणकर्ताओं का बोलबाला था। देवकीनंदन पाण्डे हमेशा मानते रहे कि इस विशिष्ट भाषा के अध्ययन और सही उच्चारण की बारीकियों का अभ्यास उन्हें रेडियो लखनऊ से ही मिला।

भारत के आज़ाद होते ही आकाशवाणी पर समाचार बुलेटिनों का सिलसिला प्रारंभ हुआ। दिल्ली स्टेशन पर अच्छी आवाज़ें ढूंढ़ने की पहल हुई। देवकीनंदन पाण्डे ने डिस्क पर अपनी आवाज़ रेकार्ड करके भेजी। फ़रवरी, 1948 में जब दिल्ली में आकाशवाणी की हिंदी समाचार सेवा शुरू हुई तो करीब 3000 उम्मीदवारों में उनकी आवाज़ और वाचन शैली को सर्वश्रेष्ठ पाया गया। उसके बाद से उन्होंने कभी पीछे मुड़ कर नहीं देखा।

1948 में आकाशवाणी में हिन्दी समाचार प्रभाग की स्थापना हुई। उस समय के समाचार वाचकों को हिन्दी-उर्दू दोनों आना ज़रूरी था। शुरू में मूल समाचार अंग्रेज़ी में लिखे जाते थे जिसका अनुवाद वाचक को करना होता था।

देवकीनंदन पाण्डे समाचार प्रसारण के समय घटनाक्रम से अपने आपको एकाकार कर लेते थे और यही वजह थी उनके पढ़ने का अंदाज़ करोड़ों श्रोताओं के दिल को छू जाता था। उनकी आवाज़ में एक जादुई स्पर्श था। तकनीक के अभाव में सिर्फ़ आवाज़ के बूते पर अपने आपको पूरे देश में एक घरेलू नाम बन जाने का करिश्मा पाण्डेजी ने किया। सरदार पटेल, लियाक़त अली ख़ान, मौलाना आज़ाद, गोविन्द वल्लभ पंत, पं. जवाहरलाल नेहरू और जयप्रकाश नारायण के निधन का समाचार देवकीनंदन पाण्डे के स्वर में ही पूरे देश में पहुँचा। संजय गाँधी के आकस्मिक निधन का समाचार वाचन करने के लिये सेवानिवृत्त हो चुके पाण्डेजी को विशेष रूप से आकाशवाणी के दिल्ली स्टेशन पर आमंत्रित किया गया।

देवकीनंदन पांडे ने कई रेडियो नाटकों में भाग लिया था। उन्हें आधारशिला फ़िल्म और लोकप्रिय टेलिविजन सीरियल तमस में अपने अभिनय के जलवे दिखाने का मौका भी मिला था। खाने पीने का भी उन्हें बहुत शौक था।

देवकीनंदन पाण्डे को वॉइस ऑफ़ अमेरिका जैसी अंतरराष्ट्रीय प्रसारण संस्था से अपने यहाँ काम करने का ऑफ़र मिला लेकिन देश प्रेम ने उन्हें ऐसा करने से रोका। नए समाचार वाचकों के बारे में पाण्डेजी का कहना था जो कुछ करो श्रद्धा, ईमानदारी और मेहनत से करो। हमेशा चाक-चौबन्द और समसामयिक घटनाक्रम की जानकारी रखो। जितना ज़्यादा सुनोगे और पढ़ोगे उतना अच्छा बोल सकोगे। किसी शैली की नकल कभी मत करो। कोई ग़लती बताए तो उसे सर झुकाकर स्वीकार करो और बताने वाले के प्रति अनुगृह का भाव रखो। निर्दोष और सोच समझकर पढ़ने की आदत डालो; आत्मविश्वास आता जाएगा और पहचान बनती जाएगी।

उन्‍होंने फिल्‍म में काम किया लेकिन मेहनताने की अपेक्षा नहीं की। प्रॉडयूसर अमरजीत उनके एक्‍टर बेटे सुधीर का हवाला देकर आए थे इसलिए काम करने के लिए हां कह दी। जब मेहनताना नहीं मिला तो कोई भी मलात नहीं हुआ। उनका लेखन पक्ष भी काफी मजबूत था। उन्‍होंने कुमाऊं पर एक किताब ‘कुमाऊं- ए परस्‍पेक्टिव’ लिखी। इस महान बहुमुखी से प्रधान व्यक्तित्व ने अपनी अंतिम साँस 2001 में ली, लेकिन उनकी आवाज़ आज भी हमारे कानो में गुजती है। उनकी आवाज़ सुनने के लिए पूरा देश पागल था, आज उन्हें कुमाऊँ के गाँधी के नाम से जाना जाता है।

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