पंडित नैनसिंह रावत – भारतीय वैज्ञानिक

पंडित नैन सिंह रावत की जीवनी : पंडित नैन सिंह रावत (Pt. Nain Singh Rawat) का जन्म उत्तराखण्ड राज्य के पिथौरागढ़ जिले के मुनस्यारी तहसील के मिलम गांव में 21 अक्टूबर 1830 को हुआ था। नैन सिंह रावत के पिता का नाम अमर सिंह था।

Nain Singh Rawat
पंडित नैन सिंह रावत
जन्म 21अक्टूबर, 1830
मृत्यु 1 फरवरी, 1895
जन्मस्थान मिलम गांव, पिथौरागढ़

 पंडित नैन सिंह रावत ने अपनी प्रारंभिक शिक्षा गांव में ही हासिल की लेकिन आर्थिक तंगी के कारण जल्द ही पिता के साथ भारत और तिब्बत के बीच चलने वाले पारंपरिक व्यापार से जुड़ गये। इससे उन्हें अपने पिता के साथ तिब्बत के कई स्थानों पर जाने और उन्हें समझने का मौका मिला। उन्होंने तिब्बती भाषा सीखी जिससे आगे उन्हें काफी मदद मिली। हिन्दी और तिब्बती के अलावा उन्हें फारसी और अंग्रेजी का भी अच्छा ज्ञान था।

इस महान अन्वेषक, सर्वेक्षक और मानचित्रकार ने अपनी यात्राओं की डायरियां भी तैयार की थी। उन्होंने अपनी जिंदगी का अधिकतर समय खोज और मानचित्र तैयार करने में बिताया। पंडित नैनसिंह के अलावा उनके भाई मणि सिंह और कल्याण सिंह और चचेरे भाई किशन सिंह ने भी मध्य एशिया का मानचित्र तैयार करने में भूमिका निभायी थी। इन्हें जर्मन भूगोलवेत्ताओं स्लागिंटवाइट बंधुओं एडोल्फ और राबर्ट ने सबसे पहले सर्वे का काम सौंपा था।

ब्रिटिश राज में सर्वे आफ इंडिया ने दस अप्रैल 1802 को ग्रेट ट्रिगोनोमैट्रिकल सर्वे (Great Trigonometrical Survey) (जीएसटी) की शुरुआत की थी। इस सर्वे का उद्देश्य भारतीय उपमहाद्वीप के अलावा मध्य एशिया और महान हिमालय का मानचित्र तैयार करना था। इसके कुछ वर्षों बाद 1830 में रॉयल जियोग्राफिकल सोसाइटी (Royal Geographical Society) की भी स्थापना हुई थी। तब तिब्बत ब्रिटेन के लिये एक रहस्य ही बना हुआ था और वह जीएसटी के जरिये इसका मानचित्र तैयार करना चाहता था।

इस दौरे से लौटने के बाद नैनसिंह अपने गांव के सरकारी स्कूल में शिक्षक बन गये थे और यहीं से उन्हें पंडित नाम मिला। तब किसी भी पढ़े लिखे या शिक्षक के लिये पंडित शब्द का उपयोग किया जाता था। वह 1863 तक अध्यापन का काम करते रहे।

पंडित नैन सिंह और उनके भाई 1863 में जीएसटी से जुड़े और उन्होंने विशेष तौर पर नैन सिंह 1875 तक तिब्बत की खोज में लगे रहे। नैन सिंह और उनके भाई मणि सिंह को तत्कालीन शिक्षा अधिकारी एडमंड स्मिथ की सिफारिश पर कैप्टेन थामस जार्ज मोंटगोमेरी ने जीएसटी के तहत मध्य एशिया की खोज के लिये चयनित किया था। उनका वेतन 20 रूपये प्रति माह था। इन दोनों भाईयों को ग्रेट ट्रिगोनोमैट्रिकल सर्वे के देहरादून स्थित कार्यालय में दो साल तक प्रशिक्षण भी दिया गया था।

जीएसटी के अंतर्गत पंडित नैन सिंह ने काठमांडो से लेकर ल्हासा और मानसरोवर झील का नक्शा तैयार किया। इसके बाद वह सतलुज और सिंध नदी के उदगम स्थलों तक गये। उन्होंने 1870 में डगलस फोर्सिथ के पहले यरकंड यानि काशगर मिशन और बाद में 1873 में इसी तरह के दूसरे मिशन में हिस्सा लिया था।

इस बीच 1874 की गर्मियों में मिशन लेह पहुंचा तो तब तक कैप्टेन मोंटगोमेरी की जगह कैप्टेन हेनरी ट्रोटर ने ले ली थी। जीटीएस के सुपरिटेंडेंट जनरल जेम्स वाकर के निर्देश पर कैप्टेन ट्रोटर ने पंडित नैन सिंह ने लेह से ल्हासा तक तिब्बत के उत्तरी भाग का मानचित्र तैयार करने की जिम्मेदारी सौंपी। उनका यह सबसे कठिन दौरा 15 जुलाई 1874 को लेह से शुरू हुआ था जो उनकी आखिरी खोज यात्रा भी साबित हुई। इसमें वह लद्दाख के लेह से होते हुए ल्हासा और फिर असम के तवांग पहुंचे थे। इस यात्रा के दौरान उन्होंने कई महत्वपूर्ण जानकारियां जुटायी जो बाद में बहुत उपयोगी साबित हुई। उन्हें ल्हासा से बीजिंग तक जाना था लेकिन ऐसा संभव नहीं होने पर सांगपो यानि ब्रह्मपुत्र या भूटान के रास्ते भारत आने के निर्देश दिये गये थे।

पंडित नैन सिंह 24 दिसंबर को तवांग पहुंचे थे लेकिन वहां उन्हें व्यापारी मानकर बंदी बना दिया गया और 17 फरवरी तक वह स्थानीय लोगों के कब्जे में रहे। आखिर में उन्हें छोड़ दिया गया। वह एक मार्च 1875 को उदयगिरी पहुंचे और वहां स्थानीय सहायक कमांडर से मिले जिन्होंने टेलीग्राम करके कैप्टेन ट्रोटर को उनके सही सलामत लौटने की खबर दी। सहायक कमांडर ने ही उनकी गुवाहाटी तक जाने की व्यवस्था की जहां उनका सांगपो से मिलन हुआ जो अब ब्रह्मपुत्र बन चुकी थी। गुवाहाटी से वह कोलकाता गये थे। इस तरह से पंडित ने लेह से लेकर उदयगिरी तक 1405 मील की यात्रा की थी। द ज्योग्राफिकल मैगजीन में 1876 में पहली बार उनका कार्यों पर लेख प्रकाशित हुआ था।

पंडित नैन सिंह को उनके इस अद्भुत कार्यों के लिये देश और विदेश में कई पुरस्कार पदक भी मिले। रायल ज्योग्राफिकल सोसायटी ने उन्हें स्वर्ण पदक देकर सम्मानित किया था। उन्हें स्वर्ण पदक प्रदान करते हुए कर्नल युले ने कहा था कि किसी भी अन्य जीवित व्यक्ति की तुलना में एशिया के मानचित्र तैयार करने में उनका योगदान सर्वोपरि है। पेरिस के भूगोलवेत्ताओं की सोसायटी ने उन्हें स्वर्णजड़ित घड़ी प्रदान की। ब्रिटिश सरकार ने 1877 में उन्हें भारतीय साम्राज्य का साथी यानि सीआईई की उपाधि से नवाजा। उन्हें रूहेलखंड में एक गांव जागीर के रूप में और साथ में 1000 रूपये दिये गये थे। भारतीय डाक विभाग ने उनकी उपलब्धि के 139 साल बाद 27 जून 2004 को उन पर डाक टिकट निकाला था। उनकी यात्राओं पर कई किताबें प्रकाशित हुई हैं। इनमें डेरेक वालेर की ‘द पंडित्स’ तथा शेखर पाठक और उमा भट्ट की ‘एशिया की पीठ पर’ महत्वपूर्ण हैं। इस महान अन्वेषक का 1 फरवरी 1895 में दिल का दौरा पड़ने से निधन हो गया।

नोट :-

  • एशिया के मानचित्र तैयार करने में उनका योगदान सर्वोपरि है।
  • ब्रिटिश सरकार ने 1877 में उन्हें भारतीय साम्राज्य का साथी यानि सीआईई की उपाधि से नवाजा।
  • रॉयल जियोग्राफिकल सोसाइटी ने उन्हें स्वर्ण पदक देकर सम्मानित किया था।
  • भारतीय डाक ने 27 जून 2004 को उन पर डाक टिकट निकाला था।
    Nain Singh Stamp

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