उत्तराखंड में कृषि उत्पादन एवं खेती के प्रकार : उत्तराखंड एक कृषि प्रधान राज्य है, यहां की 69.45% आबादी गाँव में निवास करती है, जोकि कृषि, जड़ी-बूटी व वन संपदा पर निर्भर है। उत्तराखंड में कृषि योग्य भूमि 13 प्रतिशत है।
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उत्तराखंड राज्य में भू-सुधार एवं भू-प्रबंधन
- ब्रिटिश काल से पूर्व राज्य में जो भी भूमि-बंदोबस्त किए गए, वे सभी मनुस्मृति पर आधारित थे।
- अंग्रेजों से पूर्व 1812 में गोरखाओं ने भूमि-बंदोबस्त कराया था।
- ब्रिटिश काल का पहला भूमि-बंदोबस्त 1815-16 में हुआ था, तब से लेकर अब तक राज्य में कुल 12 बार भूमि-बंदोबस्त हो चूका हैं ।
- 1815 में अंग्रेज अधिकारी गार्डनर के नियंत्रण में कुमाऊं में तथा 1816 में अंग्रेज अधिकारी टेल के नियंत्रण में गढ़वाल में भूमि-बंदोबस्त हुआ ।
- राज्य का सबसे महत्वपूर्ण भूमि-बंदोबस्त (9वां बंदोबस्त) सन् 1863-73 में हुआ जिसे अंग्रेज अधिकारी जी. के. विकेट (G. K. Wicket) ने कराया था। जी. के. विकेट ने ही पहली बार वैज्ञानिक पद्धति को अपनाया था। इस बंदोबस्त में पर्वतीय भूमि को 5 वर्गों (तलाऊ, उपराऊ अव्वल, उपराऊ दोयम, इजरान व कंटील) में बाँटा गया।
- ब्रिटिश काल का अंतिम भूमि बंदोबस्त (11वां बंदोबस्त) 1928 में अंग्रेज अधिकारी इबटसन के नेतृत्व में हुआ।
- स्वतंत्रता के बाद 1960-64 में 12वाँ भूमि-बंदोबस्त हुआ। इस भूमि बंदोबस्त के अंतर्गत उत्तर प्रदेश सरकार ने 3 – 1/8 एकड़ तक की जोतों को भू-राजस्व की देनदारी से मुक्त कर दिया ।
- गठन के ठीक पूर्व राज्य कुल सक्रिय जोतें 9.26 लाख थी, जो अब 3.5% घटकर 8.91 लाख रह गई हैं ।
- राज्य में कृषि भूमि नापने के लिए नाली व मुट्ठी पैमाने प्रयुक्त किये जाते हैं। एक नाली 200 वर्ग मीटर के तथा 50 नाली एक हेक्टेयर (10,000 वर्ग मी.) के बराबर होते हैं।
पर्वतीय कृषि भूमि के प्रकार
- तलाऊ – यह भूमि घाटी के तालों में होती हैं, जहाँ सिचाई की सर्वोत्तम व्यवस्था होती हैं। यह की भूमि, उपराऊ भूमि से तीन गुना अच्छी मानी जाती हैं।
- उपराऊ – यह असिंचित भूमि उपरी भागों में मिलता हैं, इसे दो भागो में विभाजित किया गया हैं।
(i) उपराऊ अव्वल – यह दोयम से डेढ़ गुना ज्यादा उपजाऊ होतो हैं ।
(ii) उपराऊ दोयम – यह इजरान से दो गुना ज्यादा उपजाऊ होती हैं ।
- इजरान- वनों के बीच या किनारों की अपरिपक्व, पथरीली भूमि को इजरान कहते हैं।
उत्तराखंड में खेती के प्रकार
- समोच्च खेती (Contour Farming) – इसे कण्टूर फार्मिंग भी कहते हैं, ढाल (Slop) के ऊपर एक ही ऊंचाई के अलग-अलग दो बिंदुओं को मिलाने वाली काल्पनिक रेखा को कण्टूर कहते हैं। जब पहाड़ी ढालों के विपरीत कण्टूर रेखा पर खेती की जाती है, तो उसे कण्टूर या सर्वोच्च खेती कहते हैं। इस विधि में कम वर्षा वाले क्षेत्रों में नमी सुरक्षित रहती है, जबकि अधिक वर्षा वाले क्षेत्रों में भूक्षरण (कटाव) कम हो जाता है।
- सीढ़ीदार खेती (Terrace Farming) – जब भूमि अधिक ढालू होती है, तब इस विधि से कृषि की जाती है, इसमें ढाल को सीढ़ियों (Stairs) के रूप में परिवर्तित कर दिया जाता है और उन सीढियों पर आड़ी जुताई करके कृषि की जाती है।
- स्थानान्तरणशील खेती – इसे झुमिंग खेती भी कहते हैं, राज्य की कुछ आदिवासी जनजाति (Tribe) इस प्रकार की खेती करते हैं, इसमें सर्वप्रथम किसी स्थान का चुनाव कर उस स्थान की पहाड़ियों को साफ कर दिया जाता है, और कुछ वर्षों तक इस में कृषि की जाती है और उर्वरता (Fertility) समाप्त होने पर स्थान को बदल दिया जाता है।
उत्तराखंड में आकार वर्गानुसार क्रियात्मक जोतों की संख्या
उत्तराखंड में भूमि उपयोग
उत्तराखंड में प्रमुख फसलों का उत्पादन (मीट्रिक टन)
उत्तराखंड में विभिन्न साधनों द्वारा सिंचित क्षेत्रफल (हेक्टेयर)
उत्तराखंड में औषधीय एवं अन्य फसले
बेलाडोना (Belladonna)
उत्तराखंड राज्य में सर्वप्रथम बेलाडोना की खेती 1903 में कुमाऊं में शुरू की गई, आज राज्य में कुटकी (Gnat), अफीम (Opium), पाइरेथम (Pyretham) आदि कई ओषधियों की खेती की जाती हैं।
जिरेनियम (Geranium)
जिरेनियम अफ्रीकी मूल का एक शाकीय सुगंध (Fragrance) युक्त पौधा हैं। इसका उपयोग सुगन्धित तेल (Aromatic Oils) बनाने के लिए किया जाता हैं।
चाय (Tea)
उत्तराखंड राज्य के मध्य हिमालय और शिवालिक पहाड़ियों के मध्य स्थित पर्वतीय ढालो पर चाय पैदा की जाती हैं। चाय विकास बोर्ड (Tea Development Board) का गठन कौसानी में एक अत्याधुनिक चाय उत्पादन इकाई के रूप में स्थापित किया गया है।
पढ़ें उत्तराखंड में पायी जाने वाली खनिज संपदा व खनिज पदार्थ।
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