बैरिस्टर मुकुन्दी लाल – सामाजिक कार्यकर्ता, वकील

बैरिस्टर मुकुन्दी लाल (Barrister Mukundi Lal) का जन्म 14 अक्टूबर, 1885 में चमोली जिले के पाटली गांव में हुआ था। मुकुन्दी लाल की प्रारम्भिक शिक्षा चोपड़ा (पौड़ी) के मिशन हाईस्कूल में हुई थी।

मुकुन्दी लाल ने हाईस्कूल और इंटरमीडिएट की परीक्षा रैमजे इंटर कालेज, अल्मोड़ा से प्राप्त की थी। 1911 में इलाहाबाद से बी०ए० की परीक्षा पास कर दानवीर घनानन्द खंडूरी से मिली आर्थिक सहायता से 1913 में इंग्लैण्ड चले गये और वहां से 1919 में बार-एट-ला की डिग्री प्राप्त की और स्वदेश लौटे।

1914 में इंग्लैंड में उनकी मुलाकात महात्मा गांधी से हुई, अध्ययन काल में ही उन्होंने बोल्वेशिक साहित्य पढ़ा और उससे प्रभावित हुये। 6 अप्रैल, 1919 को बार-एट-ला की डिग्री के साथ यूरोपीय आदर्शवाद और मार्क्सवादी विचारों को लेकर स्वदेश लौटे।

बम्बई में खुफिया पुलिस ने इन्हें हिरासत में ले लिया, क्योंकि इनके पास मार्क्सवादी साहित्य था। बम्बई में ही इनसे करेण्डकर जी और हिन्दू समाचार पत्र के सम्पादक कस्तुरी रंगा अय्यर ने इन्हें मद्रास आने तथा हिन्दू में काम करने का निमंत्रण दिया। लेकिन बैरिस्टर ने यह आमंत्रण ठुकरा दिया और इलाहाबाद चले आये, जहां पर जवाहर लाल नेहरु ने स्वयं इनका स्वागत किया। इस दौरान उन्हें पं० मोती लाल नेहरु, जवाहर लाल नेहरु, रामेश्वरी नेहरु, सुन्दरलाल बहुगुणा और महात्मा गांधी जैसे राष्ट्रीय नेताओं के सम्पर्क में आने का अवसर मिला तथा वह उनके विचारों से प्रभावित हुये।

इसके बाद मुकुन्दी लाल जी ने कांग्रेस की सदस्यता ले ली और अपने पहाड़ लौट आये। 1919 में इन्होंने लैंसडाउन में वकालत प्रारम्भ की, तभी ये स्थानीय और राष्ट्रीय स्वाधीनता संग्राम सेनानियों के सम्पर्क में आये। 1920 में ये उत्तराखण्ड से प्रतिनिधिमण्डल लेकर अमृतसर के कांग्रेस सम्मेलन में गये और वहां पर उनकी मुलाकात जिन्ना से ही हुई।

Barrister Mukundi Lal
बैरिस्टर मुकुन्दी लाल
जन्म 14 अक्टूबर, 1885
मृत्यु 10 जनवरी 1982
जन्मस्थल पाटली गांव, जिला चमोली

सम्मेलन से लौटने के बाद उन्होंने लैंसडाउन में कांग्रेस की स्थापना की और इसके 800 सद्स्य बनाये, इस समय उत्तराखण्ड में कुली बेगार आन्दोलन चरम पर था, मुकुन्दी लाल जी भी इस आन्दोलन में कूद पड़े। 1923 और 1926 में मुकुन्दी लाल जी, जो अब बैरिस्टर से नाम से प्रसिद्ध हो गये थे, गढ़वाल सीट से प्रान्तीय कौंसिल के लिये चुने गये, 1927 में यह कौंसिल के उपाध्यक्ष भी चुने गये।

1930 में इन्होंने कांग्रेस छोड़ दी। 1930 में वीर चन्द्र सिंह गढवाली और पेशावर काण्ड के सिपाहियो की पैरवी के लिये एबटाबाद चले आये, अंग्रेज सरकार अपने इस अपमान (राजद्रोह) का बदला वीर चन्द्र सिंह गढवाली को फांसी देकर चुकाना चाहती थी, लेकिन बैरिस्टर की दमदार बहस से वे पेशावर कांड के सभी सिपाहियों को फांसी की सजा से बचाने में कामयाब रहे। इसके बाद 1938 से 1943 तक ये टिहरी रियासत के हाईकोर्ट के जज रहे और फिर 16 वर्षों तक टरपेन्टाइल फैक्ट्री, बरेली के जनरल मैनेजर रहे।

1930 में कांग्रेस से इस्तीफा देने के 32 साल बाद और प्रान्तीय कौंसिल के लिये 1936 में चुनाव हारने के बाद 1962 में इन्होंने गढ़वाल से 1962 में इन्होंने विधान सभा का निर्दलीय चुनाव लड़ा और जीते, तत्पश्चात पुनः कांग्रेस में सम्मिलित हो गये। 1967 में इन्होंने सक्रिय राजनीति से एक प्रकार से सन्यास ले लिया।

एक कला समीक्षक, लेखक, सम्पादक-पत्रकार और संग्रहकार के रुप में इन्होंने अपना परचम लहराया। मौलाराम के कवि-चित्रकार व्यक्तित्व को प्रकाश में लाने में इनकी महत्वपूर्ण भूमिका रही है, बल्कि इसका श्रेय इन्हीं को जाता है। “गढ़वाल पेन्टिंग्स” नामक इनकी प्रसिद्ध पुस्तक का प्रकाशन 1969 में भारत सरकार के प्रकाशन विभाग ने किया। 1972 में इन्हें उत्तर प्रदेश ललित कला अकादमी की फेलोशिप मिली, 1978 में अखिल भारतीय कला संस्थान ने अपनी स्वर्ण जयन्ती के अवसर पर इन्हें सम्मानित किया।

इटली के प्रसिद्ध समाचार पत्र यंग इटली की तर्ज पर इन्होंने लैंसडाउन से “तरुण कुमाऊं” नाम से मासिक पत्र का सम्पादन और प्रकाशन शुरु किया। इसके अलावा बैरिस्टर एक कुशल शिकारी भी थे, उन्होंने अपने जीवन काल में 5 शेर और 23 बाघों का शिकार किया। कोटद्वार स्थित इनका घर “भारती भवन” पक्षियों और दुर्लभ फूलों का एक छोटा संग्रहालय है।

बैरिस्टर मुकुन्दी लाल हमेशा ही उत्तराखण्ड के विकास के लिये प्रयत्नशील रहे, गढ़्वाल कमिश्नरी का गठन और मौलाराम स्कूल आफ गढवाल आर्टस की स्थापना का श्रेय इन्हें ही जाता है। जीवन के 97 सालों में बैरिस्टर आर्य समाजी, ईसाई, सिख, हिन्दू और बौद्ध बने और बतौर बुद्ध ही निर्वाण प्राप्त किया। उत्तराखण्ड के प्रथम और अन्तिम बैरिस्टर के रुप में भी इनकी पहचान रही। वास्तव में मुकुन्दी लाल जी उत्तराखण्ड के लाल हैं।

नोट :-

  • मौलाराम की चित्रकला को विश्व के सामने लाने का कार्य इन्होंने ही किया।
  • सन 1969 में भारत सरकार के प्रकाशन विभाग ने  इनके द्वारा लिखित “गढ़वाल पेन्टिंग्स” नामक प्रसिद्ध पुस्तक का प्रकाशन किया।