राजस्थान के लोक संत एवं संप्रदाय

राजस्थान के लोक संत एवं संप्रदाय (PDF)

राजस्थान के लोक संत एवं संप्रदाय (PDF) : राजस्थान के लोक संत एवं संप्रदाय से जुड़े प्रश्न अक्सर परीक्षाओं में पूछे जाते हैं इन्हीं राजस्थान के प्रमुख लोक संत ( rajasthan ke lok sant pdf ) से जुड़े प्रश्नों को ध्यान में रखते हुए राजस्थान के प्रमुख लोक संतों से जुड़ी जानकारी यहाँ दी गयी है।

राजस्थान के लोक संत

संत रामचरण जी

संत रामचरण जी महाराज का जन्म सन् 1718 ई. में वर्तमान टोंक जिले के ‘सोडा गाँव’ में हुआ था। यह विजयवर्गीय वैश्य परिवार के थे। संत रामचरण जी ‘रामस्नेही मत’ के संस्थापक थे। संत रामचरण जी महाराज ने गुरु के महत्व पर बल दिया है। संत रामचरण जी का बचपन का नाम ‘रामकिशन’ था। संत रामचरण जी के पिता का नाम ‘बखतराम’ तथा माता का नाम ‘देऊजी’ था और संत रामचरण जी की पत्नी का नाम ‘गुलाब कुंवर’ था। रामचरण जी द्वारा ब्रजभाषा में रचित गीतों  संग्रह ‘अनाभाई वेणी’ के नाम से प्रसिद्ध है।
संत जी की चार पीठें राजस्थान में स्थित हैं :-
(1) शाहपुरा
(2) रैण
(3) सिंहथल
(4) खेड़ापा
जिनमें से शाहपुरा शाखा की नींव संत रामचरण जी महाराज ने डाली थी। रामस्नेही सम्प्रदाय में निर्गुण भक्ति तथा सगुण भक्ति की रामधुनी एवं भजन कीर्तन की परम्परा के समन्वय से निर्गुण-निराकार परब्रह्म राम की उपासना की जाती है। रामचरण जी का राम कण-कण में व्याप्त निर्गुण-निराकार परब्रह्म है।

संत जाम्भेश्वर जी (जाम्भोजी)

संत जाम्भेश्वर जी (जाम्भोजी) का जन्म विक्रम संवत् 1508 (1451 ई.) में पीपासर नामक गाँव (नागौर) में पंवार वंशीय राजपूत ठाकुर परिवार में हुआ था। जाम्भोजी के पिता का नाम ठाकुर लोहट पँवार तथा माता का नाम ‘हंसा देवी’ था जो जाम्भोजी को श्रीकृष्ण का अवतार मानती थीं। संत जाम्भेश्वर जी (जाम्भोजी) को पर्यावरण वैज्ञानिक कहा जाता है। जाम्भोजी ने ‘जम्भ संहिता’, ‘जम्भसागर’, ‘शब्दवाणी’, तथा ‘विश्नोई धर्म प्रकाश’ आदि धर्म ग्रंथों की रचना की। जाम्भोजी द्वारा रचित 120 शब्द वाणियाँ भी संग्रहित हैं। समाज का उत्थान करने के लिए जाम्भोजी ने 29 नियम बनाए। संत जाम्भेश्वर जी (जाम्भोजी) के अनुयायी विश्नोई कहलाते हैं। विश्नोई सम्प्रदाय का प्रवर्तन जाम्भोजी ने सन् 1485 में संभराथल (बीकानेर) में किया। ‘मुकाम’ नामक गाँव में जाम्भोजी ने 1526 ई. में त्रयोदशी को समाधि ली थी। ‘विश्नोई सम्प्रदाय’ की स्थापना जाम्भोजी के द्वारा संभराथल (बीकानेर) में की गई जिसको ‘धोक – धोरा’ के नाम से जाना जाता है। गुरु जाम्भेश्वर ने ‘पाहल’ नामक अभिमंत्रित जल को आज्ञानुवर्ती समुदाय को पिलाकर उन्हें विश्नोई पंथ में दीक्षित किया था।
जाम्भोजी से संबंधित 6 देवालय हैं :-
1. पीपासर,
2. मुक्तिधाम, मुकाम,
3. लालसर,
4. जांभा,
5. जांगलू,
6. रामड़ावास आदि।
हिन्दू तथा मुस्लिम धर्मों में व्याप्त भ्रमित आडम्बरों का विरोध जाम्भोजी ने किया था। संत जाम्भोजी के श्रीमुख से उच्चारित वाणी को जम्भवाणी, सबदवाणी, तथा गुरुवाणी कहते हैं। जाम्भवाणी काव्य परम्परा में सबदवाणी को देववाणी भी कहा जाता है। जम्भवाणी में कुल 123 शब्द हैं, प्रत्येक शब्द मुक्तक कविता की तरह स्वतंत्र है। गुरु जाम्भेश्वर जी की वाणी से ज्ञात 151 शब्द जा गुरु के रूप में संकलित है जिसको ‘जम्भगीता’ कहा जाता है। ‘जम्भगीता’ को विश्नोई सम्प्रदाय के लोग पाँचवा वेद मानते हैं। जाम्भोजी  के धाम :-
(1) पीपासर :- इस स्थान पर जाम्भोजी का जन्म नागौर जिले में हुआ।
(2) रामड़ावास :- जोधपुर जिले के पीपाड के समीप लोहावट व रामड़ावास स्थान पर उपदेश दिये थे।
(3) मुकाम :- बीकानेर जिले की नोखा तहसील में मुकाम नामक स्थान पर जाम्भोजी ने समाधि ली थी। इसी स्मृति में प्रत्येक वर्ष आश्विन एवं फाल्गुन अमावस्या को मेला लगता है।

(4) लोदीपुर :- उ.प्र. के मुरादाबाद जिले के लोदीपुर स्थान पर जाम्भोजी भ्रमण करने आये थे।
(5) जांगलू :- बीकानेर जिले की नोखा तहसील में जांगलू स्थान पर हर हर वर्ष भादवा अमावस्या तथा चैत्र अमावस्या को मेला लगता है।
(6) रोटू :- नागौर जिले के रोटू विश्नोई सम्प्रदाय का आराध्य स्थल है।
(7)  जाम्भा :- जोधपुर जिले की फलोदी तहसील में स्थित जाम्भा गाँव विश्नोई सम्प्रदाय के लिए पुष्कर की तरह पवित्र तीर्थ स्थल है जहाँ पर प्रति वर्ष चैत्र अमावस्या व भादव पूर्णिमा को मेला भरता है।
(8) लालासर :- इस स्थान पर जाम्भोजी को निर्वाण प्राप्त हुआ था, यह स्थान बीकानेर जिले में स्थित है।

संत दादूदयाल जी

दादू जी का जन्म 1544 ई. में अहमदाबाद में हुआ था। दादूजी निगुर्ण निराकार भक्ति धारा के संत थे। दादूदयाल जी ने ईश्वर तथा गुरु में आस्था, जात-पात की निस्सारता, तथा सत्य व सरल जीवन पर जोर दिया। दादू जी के काव्य रूपी उपदेश ‘दादूजी री वाणी’ व ‘दादूजी रा दोहा’ में संग्रहित हैं। दादू जी के गुरु वृद्धानन्द थे। इनके प्रमुख शिष्यों में दोनों इनके पुत्र गरीबदास जी एवं मिस्किन दास जी के अलावा बखनाजी, रज्जबजी, सुंदरदास जी, संतदास जी, जगन्नाथ जी, तथा माधोदास जी, थे। 1568 ई. में सांभर में आकर दादूजी उपदेश देने लगे। सन् 1602 ई. में नरैना (नारायणा) आ गए तथा यहीं पर 1605 ई. में ज्येष्ठ कृष्ण अष्टमी को दादूजी ने महाप्रयाण किया। नरैना में भैराण पहाड़ी पर दादूखोल गुफा है जिसमें दादूदयाल जी ब्रह्मलोक सिधारे थे। नरैना के दादूपंथियों की प्रधान गद्दी है जोकि जयपुर में स्थित है। संत दादूजी के शिष्य परम्परा में 152 शिष्य माने जाते हैं, 52 शिष्य ‘प्रमुख शिष्य’ अब ‘52 स्तम्भ’ कहलाते हैं। सन् 1585 में दादू जी फतेहपुर सीकरी की यात्रा की तथा अकबर से भी भेंट की। अकबर दादूदयालजी के विचारों से प्रभावित हुए। भगवद भक्ति के साथ-साथ संत दादूदयाल जी धुनिये का कार्य भी करते थे। इनके लेखन व उपदेशों की भाषा सरल हिन्दी मिश्रित ‘सधुक्कड़ी’ थी। दादू पंथ के सत्संग स्थल ‘अलख दरीबा’ कहलाते हैं।
दादू पंथी 4 प्रकार के होते है –
(1) खालसा :- गरीबदास जी की आचार्य परम्परा से सम्बंधित साधु।
(2) विरक्त :- रमते-फिरते गृहस्थियों को दादू धर्म का उपदेश देने वाले साधु।
(3) खाकी :- जो जटा रखते है तथा शरीर पर भस्म लगाते हैं। इसके अलावा इनमें नागा साधु भी आते हैं।
(4) उत्तरादे व स्थानधारी :- वे साधू जो राजस्थान छोड़कर उत्तरी भारत चले गये।

संत पीपाजी

संत पीपाजी का जन्म 1425 ई. की चैत्र पूर्णिमा को गांगरोन के राजा खींची चौहान कड़ावा राव के घर हुआ था। संत पीपाजी के बचपन का नाम प्रताप सिंह और माता का नाम लक्ष्मीवती था। संत पीपाजी रामानंद के शिष्य थे। संत पीपाजी को दर्जी सम्प्रदाय के लोग अपना आराध्य देव मानते हैं। संत पीपाजी की गुफा टोंक जिले में टोडारायसिंह के समीप स्थित है। संत पीपाजी ने ऊँच-नीच की भावना का विरोध किया। पीपाजी ने गागरोनगढ़ का प्रबंध संभालते हुए दिल्ली के सुल्तान फिरोजशाह तुगलक को युद्ध में पराजित किया था। समदड़ी ग्राम (बाड़मेर) में संत पीपाजी का मंदिर बना हुआ है।

संत जसनाथ जी

संत जसनाथ जी का जन्म विक्रम संवत् 1539 ई. (1482 ई.) को बीकानेर जिले के कतरियासर गांव में हुआ था। ‘गोरक्षपीठ’ के गोरख आश्रम में संत जसनाथ जी की शिक्षा हुई। संत जसनाथ जी को सन् 1551 की आश्विन शुक्ल सप्तमी को ज्ञान की प्राप्ति हुई। जसनाथ जी आजन्म ब्रह्मचारी रहे। गोरखमालिया नामक स्थान पर इन्होंने 12 साल तक तपस्या की। नाथ सम्प्रदाय में 36 नियम होते हैं, इन 36 नियमों का पालन करने वाले लोग ‘जसनाथ’ कहलाने लगे। संत जसनाथ जी के उपदेश ‘कोंडाग्रंथ’ तथा ‘सिंभूदड़ा’ ग्रंथों में संग्रहित है। जसनाथ जी ने सृष्टि, ईश्वर, मोक्ष तथा कर्म के संबंध में गुरु के मार्गदर्शन और निराकार भगवान की उपासना पर बल दिया। संत जसनाथ जी 24 वर्ष की आयु में ही ब्रह्मलीन हो गए। इन्होंने वि. स. 1563 की आश्विन शुक्ल सप्तमी को समाधि ली।

मीरा बाई

मीरा का जन्म 1498 ई. मेड़ता रियासत के कुड़की गाँव में हुआ था, वर्तमान में कुड़की गाँव पाली जिले में स्थित है। मीरा बाई मेड़तिया वंश की थी। मीरा जी मेड़ता के शासक रतनसिंह की पुत्री, राव दूदा की पौत्री, तथा सव जोधाजी की प्रपौत्री थी। संत रैदास जी मीरा के गुरु थे। मेवाड़ के महाराणा साँगा के पुत्र तथा उदयसिंह के बड़े भाई भोजराज के साथ मीराबाई का विवाह सम्पन्न हुआ था। विवाह के कुछ वर्ष बाद ही भोजराज की मृत्यु होने के कारण मीरा ने श्रीकृष्ण को पति के रूप में स्वीकार कर लिया और उनकी भक्ति में लीन हो गई। मीरा जी श्रीकृष्ण को अपना इष्टदेव मानती थी और ये श्रीकृष्ण की उपासना अपने प्रियतम या पति के रूप में करती थी। इनकी उपासना ‘माधुर्य भाव’ की थी। मीरा बाई की ‘टीका राग गोविंद’, ‘नरसी मेहता नी हुंडी’, ‘रुक्मणी मंगल’, ‘गीत गोविंद’ आदि रचनाएं प्रमुख हैं। ब्रज भाषा में ‘नरसीजी रो मायरो’ की रचना मीरा के निर्देशन में ‘रतना खाती’ ने की। अन्त में मीरा जी रणछोड़ जी की मूर्ति में ब्रह्मलीन हो गई थी। मीरा बाई प्रतापसिंह की बड़ी माँ या ताई लगती थी। मीरा बाई को ‘राजस्थान की राधा’ कहते हैं।

संत रामदास जी

संत रामदास जी का जन्म सन् 1726 ई. भीकमकोर ग्राम (जोधपुर) में हुआ। संत रामदास जी ने अपनी दीक्षा रामस्नेही सम्प्रदाय के श्री हरिरामदास जी महाराज से ग्रहण की थी तथा दीक्षा ग्रहण करने बाद इस सम्प्रदाय की खेड़ापा शाखा स्थापित की।
रामस्नेही सम्प्रदाय की दो शाखाऐं है :-
(1) सिंहथल शाखा :- रामस्नेही सम्प्रदाय की प्रधान पीठ सिंहथल (बीकानेर) में है। रामदास जी ने राम नाम का स्मरण, गुरु सेवा, निर्गुण ब्रह्म की भक्ति पर बल दिया। संत जी ने अन्य शाखाओं की तरह जात-पात , मूर्तिपूजा, बहुदेववाद, और आडम्बरवाद आदि का विरोध किया। इस सम्प्रदाय में गुरु को पारस पत्थर से भी उच्च स्थान दिया जाता है।
(2) खेड़ापा शाखा :- इस द्वितीय सम्प्रदाय की प्रधान पीठ खेड़ापा (जोधपुर) में स्थित है। इन्होंने सदगुरु की सेवा एवं सत्संग पर बल दिया। रामस्नेही सम्प्रदाय के उपदेशों का जन-जन में प्रचार किया। संत रामदास जी की मृत्यु खेड़ापा में हुई।

संत चरणदास जी

संत चरणदास जी का जन्म भाद्रपद शुक्ल तृतीया को सन् 1703 ई. (संवत 1760) को डेहरा (अलवर) में हुआ था। संत चरणदास जी के पिता का नाम मुरलीधर तथा माताजी का नाम कुंजो देवी था। संत चरणदास जी ने मुनि शुकदेव से दीक्षा ली और बाद में अपना नाम चरणदास रखा, इनके बचपन का पहला नाम रणजीत था। संत चरणदास जी ने चरणदासी पंथ का प्रवर्तन किया। चरणदास जी भविष्यवाणी करते थे और इन्होंने नादिरशाह के आक्रमण की भविष्यवाणी की थी। चरणदास जी पीले वस्त्र धारण करते थे। भक्ति सागर, ज्ञान स्वरोदय, ब्रह्म चरित्र, ब्रह्म ज्ञान सागर आदि संत चरणदास जी के ग्रंथ है। चरणदास जी की मृत्यु सन् 1782 में हुई।

लालदास जी

लालदास जी का जन्म मेवात प्रदेश के धोलीदूव गांव में श्रावण कृष्ण पंचमी को 1540 ई. में हुआ था। लाल दास जी मेव जाति के लकड़हारे थे। लालदास जी के पिताजी का नाम समदा और माताजी का नाम चांदमल था। लालदास जी ने दीक्षा तिजारा के मुस्लिम संत गद्दन चिश्ती (गद्दाम) से ली। लालदास जी ने लालदासी सम्प्रदाय का प्रारंभ किया और निर्गुण भक्ति का उपदेश दिया। लालदास जी के प्रमुख स्थान शेरपुर, नगला और अलवर में है। इन्होंने समाज में व्याप्त मिथ्याचारों और अंधविश्वासों का विरोध किया तथा भक्ति व नैतिक शुद्धता पर बल दिया। लालदासजी की मृत्यु नगला गांव (भरतपुर रियासत) में हुई और इनकी समाधि शेरपुर (अलवर) में स्थित है।

संत दरियाव जी

संत दरियाव जी का जन्म जन्माष्टमी सं. 1758 (सन् 1676) को जैतारण (पाली) में हुआ था। दरियाव जी के पिता जी का नाम धुनिया तथा माता का नाम गीगण था। राम स्नेही सम्प्रदाय की रैण शाखा के प्रवर्तक संत दरियाव जी थे। गुरु प्रेमनाथ जी (बालकनाथ जी) से रामस्नेही पंथ में दीक्षित हुए। इन्होंने योग-मार्ग पर उपदेश दिया और ईश्वर के नाम स्मरण पर उपदेश दिया। संत दरियाव जी की मृत्यु रैण (नागौर) में वि.सं. 1815 ( सन् 1733) में हुई थी।

हरिरामदास जी

हरिरामदास जी का जन्म सिंहथल (बीकानेर) में हुआ था। हरिरामदास जी के पिता श्री भागचन्द जी जोशी थे। हरिरामदास जी ने रामस्नेही सम्प्रदाय की सिंहथल शाखा स्थापित की। हरिरामदास जी ने संत श्री जैमलदास जी रामस्नेही से पंथ की दीक्षा ली थी। हरिरामदास जी की प्रमुख कृति ‘निसानी’ थी।

हरिदास निरंजनी

हरिदास निरंजनी का जन्म कापड़ोद (नागौर) के सांखला क्षत्रिय परिवार में सन् 1455 में हुआ था। आजीविका के लिए हरिदास निरंजनी ने डकैत मार्ग को अपनाया लेकिन महात्मा के सम्पर्क में आने के बाद हृदय परिवर्तित हो गया। हरिदास निरंजनी जी का मूल नाम हरिसिंह था।

संत धन्ना जी

संत धन्ना जी का जन्म धुबन गांव (टोंक) के जाट परिवार में 1415 ई. में हुआ था। धन्ना भक्त रामानंद के शिष्य थे। धन्ना जी ने जात-पात, ऊँच-नीच का और गुरु की महत्ता पर बल दिया।

संत रैदास जी (संत रविदास जी)

रैदास जी की वाणियों को ‘रैदास की परची’ भी कहा जाता है जिनमें मानवता, सहिष्णुता, आत्मसमर्पण, उदारता, भक्ति आदि विचारों का समन्वय है। रैदास जी बाह्य आडम्बरों तथा जाति-पाति के कट्टर विरोधी थे। संत जी रामानन्द जी के प्रमुख शिष्य थे। कबीर के समकालीन, काशी के निवासी एवं जाति से चमार रैदास की निष्ठा निर्गुण ईश्वर-भक्ति में थी।

संत माव जी

संत माव जी का जन्म साबला ग्राम (डूंगरपुर) में वागड़ प्रदेश के एक ब्राह्मण परिवार में हुआ था। माव जी की वाणी ‘चोपड़ा’ कहलाती है। संत माव जी का प्रमुख मंदिर व पीठ माही तट पर साबला गाँव में ही है। माव जी वहाँ श्री कृष्ण के निष्कलंकी अवतार के रूप में प्रतिष्ठापित हैं। बेणेश्वर स्थान पर सन् 1727 में माव जी ने ज्ञान प्राप्त किया था। बेणेश्वर धाम की स्थापना संत माव जी ने ही करवाई थी।

संत रज्जब जी

रज्जब जी का जन्म 16वीं शताब्दी में सांगानेर (जयपुर) में हुआ था। रज्जबवाणी और सर्वंगी मावजी के प्रमुख ग्रंथ हैं। विवाह के लिए जाते समय दादुजी के उपदेश सुनकर मावजी दादुजी के शिष्य बन गए और जीवन भर दूल्हे के वेश में रहते हुए दादूजी के उपदेशों का बखान किया। रज्जब जी की मृत्यु सांगानेर में हुई थी। सांगानेर में ही संत रज्जब जी की प्रधान गद्दी है।

संत सुंदरदास जी

संत सुंदरदास जी का जन्म दौसा में खण्डेलवाल वैश्य परिवार में हुआ था। संत सुंदरदास जी दादू जी के परम शिष्य थे। संत सुंदरदास जी ने दादू पंथ में नागा साधु वर्ग प्रारंभ किया। सुंदरदास जी के पिता श्री परमानन्द (शाह चोखा) थे। ज्ञान समुद्रा, ज्ञान सवैया (सुन्दर विलास), सुन्दर ग्रंथावली, सुन्दर सार संत सुंदरदास जी के प्रमुख ग्रंथ हैं। संत सुंदरदास जी का स्वर्गवास संवत् 1764 में सांगानेर में हुआ था।

नरहड के पीर

नरहड के पीर वागड़ के धणी के रूप में प्रसिद्ध हैं। नरहड़ जी का असली नाम हजरत शक्कर बार बताया जाता है। शेख सलीम चिश्ती नरहड के पीर के ही शिष्य थे जिनके नाम पर बादशाह अकबर ने अपने पुत्र का नाम सलीम (जहाँगीर) रखा था। नरहड के पीर (हजरत शक्कर बार जी) की दरगाह चिड़ावा (झुंझुनू) के पास नरहड़ गाँव में स्थित है, जहाँ जन्माष्टमी के दिन उर्स का मेला लगता है।

ख्वाजा मोइनुद्दीन चिश्ती

गरीब नवाज ख्वाजा मोइनुद्दीन चिश्ती का जन्म फारस के एक गांव सर्जरी में हुआ था। ख्वाजा जी की दरगाह अजमेर में स्थित है जहाँ उर्स का विशाल मेला लगता है। ख्वाजा जी हिन्दू-मुस्लिम साम्प्रदायिक के सद्भाव का सर्वोत्तम केंद्र हैं। ख्वाजा मोइनुद्दीन चिश्ती ने पृथ्वीराज चौहान तृतीय के काल में अजमेर को अपनी कर्मस्थली बनाया। बादशाह अकबर पुत्र की अभिलाषा से पैदल जियारत करके यहाँ आया था।

पीर फखरुद्दीन जी

पीर फखरुद्दीन जी की दरगाह गलियाकोट (डूंगरपुर) में स्थित है। दाउदी बोहरा सम्प्रदाय का प्रमुख धार्मिक स्थल भी गलियाकोट (डूंगरपुर) में है। दाउदी बोहरा सम्प्रदाय के आराध्य पीर फखरुद्दीन हैं।

भक्त कवि दुर्लभ जी

भक्त कवि दुर्लभ जी का जन्म वि. सं. 1753 में वागड़ क्षेत्र में हुआ था। भक्त कवि दुर्लभ ने डूंगरपुर व बांसवाड़ा को अपना कार्यक्षेत्र बनाया था। दुर्लभ जी को राजस्थान का ‘नृसिंह’ भी कहा जाता है।

गवरी बाई

गवरी बाई को ‘वागड की मीरा’ भी कहा जाता है। गवरी बाई का जन्म डूंगरपुर के नागर वंश में हुआ था। मीरा बाई की तरह गवरी बाई ने भी वागड़ में भक्ति रस की धारा प्रवाहित की।

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