राजस्थान की प्रमुख वनस्पतियाँ (घास एवं वृक्ष)

राजस्थान की प्रमुख वनस्पतियाँ (घास एवं वृक्ष)

राजस्थान की प्रमुख वनस्पतियाँ (घास एवं वृक्ष) : राजस्थान की प्रमुख वनस्पतियाँ जैसे घास एवं वृक्ष की जानकारी यहाँ दी गयी है। राजस्थान राज्य में विभिन्न प्रकार की वनस्पतियाँ पायी जाती हैं जिनका उपयोग वर्षों से होता आया है। राजस्थान में पाए जाने वाली विभिन्न प्रकार की प्रमुख घासों एवं वृक्षों का विवरण नीचे दिया गया है। कई प्रकार की घासों एवं वृक्षों की खेती भी राजस्थान सहित भारत के कई इलाकों में की जाती है।  

राजस्थान में पायी जाने वाली प्रमुख घास

सेवण घास

  • सेवण घास राजस्थान में पायी जाने वाली घासों में सबसे लम्बी घास होती है जिसे स्थानीय भाषा में ‘लीलोण’ भी कहा जाता है।
  • सेवण घास का वैज्ञानिक नाम ‘लासियुरुस सिडीकुस’ होता है यह दुधारू पशुओं के लिए एक लाभकारी घास होती है।
  • सेवण घास अधिकांशतः पश्चिमी राजस्थान के जोधपुर, बाड़मेर, जैसलमेर, बीकानेर, श्रीगंगानगर और हनुमानगढ़ ज़िलों में पायी जाती है।
  • सेवण घास का पौधा एक बार लगाने पर 10 से 15 वर्ष तक हरा चारा उपलब्ध करवाता है।
  • इस घास में सूखा सहन करने की क्षमता होती है और इसमें स्ट्रार्च एवं प्रोटीन की मात्रा अधिक होती है जिस कारण यह पशुओं के लिए बहुत पौष्टिक और सुपाच्य होती है।
  • सेवण घास को गाय के लिए काफी लाभकारी माना जाता है साथ ही भैंस, ऊँट और भेड़ एवं बकरी आदि भी सेवण घास को काफी पसन्द करते हैं।
  • इस घास का सर्वाधिक उपयोग भेड़ों द्वारा किया जाता है।
  • सेवण घास के सूखे चारे को पश्चिमी राजस्थान में ‘सेवण कुत्तर’ के नाम से जाना जाता है।
  • सेवण घास की खासियत के कारण इसको रेगिस्तानी घासों का राजा भी कहा जाता है।
  • सेवण घास पश्चिमी राजस्थान के शुष्क क्षेत्रों में पायी जाती है यह भारत की एक देशी व बहुवर्षीय घास है जोकि लगभग 1.2 मीटर तक की ऊंचाई प्राप्त करती है। 

धामण घास / धामन घास

  • धामण घास को हिंदी में ‘धामरा’ और संस्कृत में ‘जयन्ती वेद’ कहते हैं, इसे ‘मोडा धामन या काला धामन’ के नाम से भी जाना जाता है।
  • धामण घास दुधारू पशुओं के लिए काफी लाभकारी मानी जाती है क्योंकि इसमें एंटी सेप्टिक और एंटी माइक्रोबियल गुण पाए जाते हैं।
  • यह पचने में आसान और फायदेमंद होती है इसलिए इसे पशुओं द्वारा काफी पसंद किया जाता है।
  • धामण घास का वानस्पतिक नाम सेंकरस सेटीजेरस (Cenchrus setigerus) होता है।
  • धामण घास की उत्पत्ति अफ्रीका (नील घाटी से लाल सागर), अरब व भारत के शुष्क इलाकों से हुई मानी जाती है।
  • धामण घास मुख्यतः पश्चिमी राजस्थान में पायी जाती है, यह घास राजस्थान सहित भारत के पंजाब, गुजरात तथा हरियाणा राज्यों के शुष्क इलाकों में पायी जाती है। 
  • धामण घास की ऊंचाई लगभग 0.2 से 0.9 मीटर तक होती है और यह बहुवर्षीय घास होती है।

बुर घास

  • बुर घास पश्चिम भारत में होनेवाली एक प्रकार की घास है जो काफी सुगन्धित होती है।
  • बुर घास में ‘पाइपरीटोन’ रसायन पाया जाता है जिसके कारण बुर घास सबसे सुगन्धित घास होती है इसलिए इससे सुगन्धित तेल प्राप्त किया जाता है।
  • बुर घास का उपयोग औषधि निर्माण में भी किया जाता है।
  • बुर घास प्रमुखतः बीकानेर में पायी जाती है।
  • बुर घास को ‘बुरैरो घास’ भी कहा जाता है।

ओलिवरी घास

  • ओलिवरी घास, बुर घास की ही एक उपप्रजाति होती है जिसमें ‘सिट्रस’ रसायन पाया जाता है जिससे विटामिन ए की प्राप्ति होती है।
    ओलिवरी घास ओसियाँ (जोधपुर) जिले में पायी जाती है।

सुगनी घास

  • सुगनी घास भी बुर घास की ही एक उप प्रजाति है जिससे सुगन्धित तेल प्राप्त होता है। यह घास प्रमुखतः जैसलमेर क्षेत्र में पायी जाती है।

धमासा घास

  • धमासा घास का उपयोग मिट्टी की लवणता कम करने के लिए किया जाता है। यह घास प्रमुखतः जयपुर क्षेत्र में पायी जाती है।

खस घास

  • खस घास एक सुगन्धित सघन गुच्छेदार बहुवर्षीय घास होती है जिसका उपयोग ठण्डाई, शरबत, इत्र, साबुन और पान मसाला आदी बनाने में किया जाता है, इसका प्रयोग औषधी के रूप में भी होता आया है।
  • खस लगभग 2 मीटर तक ऊँची होती है जोकि राजस्थान में प्रमुखतः टोंक, सवाई माधोपुर और भरतपुर क्षेत्र में पायी जाती है।
  • खस घास की जड़ों से टोपी, हैंड बैग, परदे, चटाईयां तथा पंखे आदि बुने जाते है। झोंपड़ी की छत भी इससे बनाई जाती है।
  • साथ ही इसकी जड़ों से खिड़की एवं दरवाजे की टटियाँ बनाई जाती हैं ताकि गर्मी में इस पर पानी छिड़ककर ठंडी एवं सुगन्धित हवा प्राप्त की जा सके।

मोचिया घास / मोठिया घास / मोथिया घास

  • मोचिया घास या मोठिया घास या मोथिया घास एक तरह की नरम घास होती है जो प्रमुखतः चूरू जिले में स्थित ‘तालछापर अभ्यारण्य’ में पायी जाती है।
  • मोठिया घास का स्वाद बहुत मीठा होता है।

ऐंचा घास

  • ऐंचा घास भरतपुर में स्थित ‘केवलादेव घना पक्षी विहार’ में पायी जाती है, इस घास की बनावट ऐसी होती है कि इसमें पक्षी उलझकर मर जाते हैं।
  • प्रवासी पक्षी ‘ग्रे लेग गूज’ को केवलादेव राष्ट्रीय पक्षी उद्यान में पाई जाने वाली ऐंचा घास बहुत पसंद आती है।

करड घास या कराड घास

  • करड घास (डायकेंथियम एनुलैटम Dichanthium Annulatum) एक बारहमासी घास होती है जिसका उपयोग गाय, भैंस, भेड़, बकरी व ऊँट आदि के पशु चारे के रूप में किया जाता है यह पशुओं को चारे के रूप में देने योग्य हरे रंग की घास होती है।

डाब घास / दूब या दुर्वा घास

  • डाब घास पुरे राजस्थान राज्य में पायी जाती है इसका उपयोग धार्मिक अवसरों पर किया जाता है साथ ही ग्रहण के अवसर पर भी किया जाता है।

झाऊ या सारसोला घास

  • झाऊ या सारसोला घास ऐसी भूमि पर होती है जिसमें नमक की मात्रा बहुतायत में पायी जाती है।

बाँस (Bamboo)

Bamboo Plant
बाँस (Bamboo)
  • ‘आदिवासियों का हरा सोना’ कहा जाने वाला बाँस भारत सरकार द्वारा 2017 में ‘वन अधिनियम 1927’ में संशोधन के बाद पेड़ नहीं बल्कि घास की श्रेणी में आता है। यानि की सरकार द्वारा बाँस को पेड़ नहीं, घास माना गया है।
  • बाँस राजस्थान राज्य के दक्षिणी भाग में प्रमुखतः बाँसवाड़ा, उदयपुर एवं कोटा में पाया जाता है।

 

राजस्थान में पाये जाने वाले प्रमुख वृक्ष (पेड़)

खजूर (डेट)

Date Palm Tree (Khajoor)
Date Palm Tree (खजूर)
  • खजूर का उपयोग पंखी (हाथ से चलाया जाने वाला पंखा), झाड़ू और घर के निर्माण में बहुतायत में किया जाता है।
  • खजूर के तने को ‘नाल’ और पत्तियों को ‘पीछी’ कहा जाता है।
  • खजूर मरुस्थल में आसानी से उगने वाला वृक्ष है।
  • खजूर के फल में विटामिन सी और डी पाया जाता है साथ ही इसमें कैल्शियम, शुगर, आयरन और पोटेशियम भी प्रचुर मात्रा में पाया जाता है।
  • खजूर पृथ्वी पर उगने वाले सबसे पुराने वृक्षों में से एक है, खजूर ताड़ प्रजाति का एक वृक्ष है।
  • खजूर की खेती भी की जाती है।

ढाक / पलास

dhak palash tree
ढाक / पलाश (Dhak / Palash tree)
  • ढाक / पलास वृक्ष का उपयोग प्राकृतिक रंगों के निर्माण में किया जाता है क्योंकि इसका रंग सुर्ख लाल एवं पीला होता है।
  • ढाक / पलास वृक्ष को सुर्ख लाल एवं पीले रंग के कारण ही ‘जंगल की ज्वाला (फ्लेम ऑफ़ दी फॉरेस्ट)’ कहा जाता है।
  • पलास को ढाक, छूल, परसा, टेसू, किंशुक, केसू आदि नामों से भी जाना जाता है।
  • यह प्रमुखतः राजसमंद क्षेत्र में पाया जाता है।
  • ढाक / पलास वृक्ष का वैज्ञानिक नाम ‘ब्यूटिया मोनोस्पर्मा (Butea monosperma)’ होता है।
  • यह धीमी गति से बढ़ने वाला, छोटे आकार का और शुष्क मौसम में होने वाला पर्णपाती वृक्ष है, जो 15 मीटर (49 फीट) तक ऊँचा होता है।
ढाक का फूल
ढाक का फूल

खेजड़ी

Khejdi Tree
खेजड़ी (Khejdi Tree)
  • खेजड़ी राजस्थान का राज्य वृक्ष है जिसे 31 अक्टूबर 1983 को राज्य वृक्ष घोषित किया गया था।
  • खेजड़ी वृक्ष को राजस्थान में पवित्र पेड़ माना जाता है इसलिए दशहरे के अवसर पर इसकी पूजा की जाती है।
  • साथ ही लोकदेवता ‘गोगाजी’ का थान भी खेजड़ी पेड़ के नीचे होता है।
  • खेजड़ी पेड़ ‘चिपको आंदोलन’ का प्रणेता रहा है।
  • खेजड़ी वृक्ष की पत्तियों का उपयोग पशुओं के चारे के रूप में एवं फलियों का उपयोग सब्जी बनाने के लिए किया जाता है।
  • स्थानीय भाषा में खेजड़ी वृक्ष की पत्तियों को ‘लूम’, फूल को ‘मींझर’ और फली को ‘सांगरी’ कहा जाता है।
  • खेजड़ी वृक्ष को ‘शमी, गौरव वृक्ष, छोंकड़ा, बन्नी, जांटी और रेगिस्तान का कल्प वृक्ष’ आदि नामों से भी जाना जाता है।
  • खेजड़ी वृक्ष का वैज्ञानिक नाम ‘प्रोसोपिस सिनेरिया (Prosopis cineraria)’ होता है।
  • खेजड़ी वृक्ष पश्चिमी एशिया और भारतीय उपमहाद्वीप के शुष्क भागों सहित अफगानिस्तान, बहरीन, ईरान, ओमान, पाकिस्तान, सऊदी अरब, संयुक्त अरब अमीरात और यमन में पाया जाता है।

[कल्प वृक्ष – कल्प वृक्ष का अर्थ होता है ‘पवित्र वृक्ष या स्वर्ग का वृक्ष, पुराणों के अनुसार समुद्र मंथन से 14 रत्नों की प्राप्ति हुई थी, जिसमें कल्प वृक्ष भी था। कल्प वृक्ष में अपार सकारात्मक ऊर्जा होती है। माना जाता है कि कल्प वृक्ष के नीचे बैठकर कोई भी व्यक्ति जो भी इच्छा करता है, वह पूर्ण हो जाती है।’]

खैर (कत्था)

खैर (कत्था)
खैर (कत्था) Khair Tree (Kattha Tree)    Img Credit : samagralay.com
  • खैर एक प्रकार का ‘बबूल वृक्ष’ होता है जिसे ‘कथकीकर’ और ‘सोनकीकर’ नाम से भी जाना जाता है।
  • ‘हाण्डी प्रणाली’ द्वारा खेर वृक्ष के ‘तने एवं छाल’ को उबालकर ‘कथौड़ी जाति’ द्वारा ‘कत्था’ तैयार किया जाता है।
  • बबूल वृक्ष की ही भाँति खेर वृक्ष से भी ‘गोंद’ प्राप्त होता है।
  • खैर (कत्था) वृक्ष प्रमुखतः उदयपुर, चित्तौड़गढ़, बूँदी एवं झालावाड़ आदी क्षेत्रों में पाया जाता है।
  • खैर वृक्ष का वैज्ञानिक नाम ‘अकेशिया कटेचू’ होता है।
  • खैर वृक्ष भारत के साथ साथ चीन, पाकिस्तान, नेपाल, श्री लंका, भूटान और म्यांमार देशों में भी पाया जाता है।

महुआ

महुआ
महुआ (Mahua Tree)
  • महुआ वृक्ष को ‘आदिवासियों का कल्प वृक्ष’ भी कहा जाता है, आदिवासियों द्वारा महुआ वृक्ष की पूजा की जाती है तथा पारंपरिक सांस्कृतिक लोकगीतों में महुआ के गीत गाए जाते हैं।
  • आदिवासियों द्वारा महुआ वृक्ष के फल खाकर जीवन यापन करने का इतिहास काफी पुराना है। आदिवासी समुदाय इस वृक्ष की शाखा तोडना अशुभ मानते हैं। साथ ही इसका उपयोग औषधि के रूप में भी होता आ रहा है।
  • महुआ वृक्ष का उपयोग ‘देशी शराब’ बनाने के लिए किया जाता है इसके फूलों से शराब तैयार की जाती है।
  • महुआ के फल के बीचो बीच में बीज होता है जिससे तेल प्राप्त होता है, इसी महुआ के तेल का प्रयोग सौन्दर्य प्रसाधन, साबुन या डिटर्जेंट आदि का निर्माण करने के लिए किया जाता है।
  • महुआ वृक्ष के बीज से प्राप्त हुए तेल को ‘वानस्पतिक मक्खन’ के रूप में चॉकलेट और बिस्कुट आदि बनाने में प्रयोग किया जाता है। इस मक्खन (बटर) को महुआ बटर अथवा कोको बटर कहते हैं।
  • महुआ वृक्ष को मधुका, मदकम, महुवा, इंडियन बटर ट्री, महुआ, महवा, मोहुलो, इलुप्पई, मी या विप्पा चेट्टू आदि नामों से भी जाना जाता है। मधुका संस्कृत शब्द है जिसका अर्थ होता है मीठा। महुआ को संस्कृत में गुड पुष्पा भी कहते हैं।
  • राजस्थान राज्य के उदयपुर, डूंगरपुर और सिरोही जिलों के साथ साथ महुआ वृक्ष मध्य भारत के मध्यप्रदेश, उत्तरप्रदेश, उड़ीसा, आंध्रप्रदेश, महाराष्ट्र, गुजरात और बिहार आदि राज्यों में होता है। बलुई मिट्टी इसके लिए सर्वश्रेष्ठ मानी जाती है।
  • महुआ में फूल गुच्छो के रूप में लगते हैं जिनका रंग सफ़ेद होता है, एक गुच्छे में लगभग 10 से 60 फूल तक होते हैं।
  • महुआ वृक्ष का वैज्ञानिक नाम ‘मधुका लोंगफोलिआ (Madhuca longifolia)’ होता है।

तेन्दू

tendu tree
तेन्दू (Tendu Tree)   Img Credit : rajajinationalpark.org
  • तेन्दू वृक्ष की पत्तियों का प्रयोग ‘बीड़ी’ बनाने में किया जाता है इसे राजस्थान में ‘वागड़ का चीकू’ के नाम से भी जाना जाता है।
  • तेन्दू वृक्ष को राजस्थान, मध्य प्रदेश में ‘तेन्दू’ एवं छत्तीसगढ़, ओडिशा और झारखण्ड राज्य में ‘केन्दु’ के नाम से जाना जाता है।
  • तेन्दू वृक्ष की छाल बहुत ही कठोर एवं सुखी होती है जिसको जलाने पर आवाज होती है और चिंगारी सी निकलती है। तेन्दू वृक्ष के फूल सुगंधित एवं सफेद रंग के होते हैं।

रोहिड़ा

rohida tree
रोहिड़ा (Rohida Tree)   Img Credit : rajasthanbiodiversity.org
  • रोहिड़ा वृक्ष का पुष्प राजस्थान का राज्य पुष्प है जिसको 13 अक्टूबर 1983 में राजस्थान का राज्य पुष्प घोषित किया गया था। इसका पुष्प पीले, नारंगी और लाल रंग का होता है जो काफी सुन्दर लगता है।
  • रोहिड़ा वृक्ष को ‘मारवाड़ का टीक’, ‘डेजर्ट टीक’ और ‘मरुस्थल का सागवान’ आदि नामों से जाना जाता है।
  • राजस्थान के शेखावटी व मारवाड़ क्षेत्र में रोहिड़ा वृक्ष की लकड़ी को इमरती लकड़ी के रूप में किया जाता है क्योंकि इसकी लकड़ी की गुणवत्ता बहुत अच्छी मानी जाती है।
  • रोहिड़ा का वैज्ञानिक नाम ‘टेकोमेला अंडुलाटा (Tecomella undulata)’ होता है।
  • राजस्थान के अलावा रोहिड़ा महाराष्ट्र, गुजरात, पंजाब और हरियाणा में पाया जाता है।

चंदन (Sandalwood)

chandan tree
चंदन (Sandalwood Tree)   Img Credit : jansatta.com
  • चंदन वृक्ष अधिकांशतः राजस्थान के सिरोही जिले के देलवाड़ा क्षेत्र एवं राजसमंद जिले के हल्दी घाटी क्षेत्र में पाया जाता है।
  • चंदन का वैज्ञानिक नाम ‘सेंटालम एल्बम (Santalum album)’ होता है।
  • चंदन की लकड़ी का उपयोग मूर्तिकला, साजसज्जा, अगरबत्ती, हवन सामग्री, ब्यूटी प्रोडक्ट्स, सुगंधिक तेल और प्रमुखतः परफ्यूम बनाने में किया जाता है।

जोजोबा / होहोबा

jojoba tree
जोजोबा / होहोबा (Jojoba Tree)
  • जोजोबा के बीज से तेल प्राप्त किया जाता है जिसका उपयोग ‘ब्यूटी प्रोडक्ट्स’ बनाने में किया जाता है और जोजोबा के बचे हुए अवशिष्ट से ‘लुब्रिकेंट’ तैयार किया जाता है।
  • जोजोबा के तेल में वैक्स एस्टर मौजूद होता है जिससे मॉइस्चराइज़र, शैंपू, बालों का तेल, लिपस्टिक, कंडीशनर, एंटी एजिंग और सन केयर प्रॉडक्ट्स, केमिकल्स, दवाई आदि बनायें जाते हैं।
  • जोजोबा में फल छठे वर्ष में लगता है और यह पौधा माइनस तीन से लेकर 55 डिग्री तक का तापमान सहन कर सकता है।
  • राजस्थान राज्य में जोजोबा की खेती बीकानेर, श्रीगंगानगर एवं झुंझुनू में की जाती है। जोजोबा रेतीली मिट्टी पर काफी अच्छे से होता है।
  • जोजोबा अमेरीका के एरिजोना क्षेत्र में पाया जाता है वहीं से यह पौधा इजराइल और फिर राजस्थान पहुंचा, जहाँ इसे सर्वप्रथम ‘काजरी’ में लगाया गया।
  • जोजोबा का वानस्पतिक नाम ‘सीमोंडसिया चिनेनसिस (Simmondsia chinensis)’ होता है।

जेट्रोफा (रतनजोत)

Jatropha tree
जेट्रोफा (रतनजोत) (Jatropha Tree)   Img Credit : tv9hindi.com
  • जेट्रोफा का उपयोग ‘बायो डीजल’ बनाने के लिए किया जाता है इसके बीज से लगभग 25 से 40 प्रतिशत तक तेल प्राप्त होता है। यह उच्चकोटि के बायो डीजल का स्रोत होता है जो विषैला नहीं होता है और कम धुआँ बनाता है।
  • जेट्रोफा के तेल निकलने के बाद बचे अवशिष्ट से बिजली का निर्माण किया जा सकता है।
  • जेट्रोफा को आम बोल चाल की भाषा में ‘डीजल का पौधा’ भी कहा जाता है।
  • जेट्रोफा का पौधा रेतीले एवं अर्द्ध शुष्क क्षेत्र में काफी आसानी से होता है।
  • जेट्रोफा तीन से चार वर्ष तक फसल देता है इसे सीधे खेत में न लगाकर पहले नर्सरी में उगाया जाता है।
  • जेट्रोफा के बीजों से तेल निकालने के बाद जो खली बचती है, उसे जानवरों को भी खिलाया जा सकता है क्योकि इसमें प्रोटीन भरपूर मात्रा में पाया जाता है। साथ ही यह खली एक उच्च कोटि की जैविक खाद होती है जिसमें नाइट्रोजन भरपूर मात्रा में पायी जाती है।
  • जेट्रोफा को विशेष देखभाल की आवश्यकता नहीं होती है क्योंकि आवारा जानवर इसे नहीं खाते हैं क्योंकि इसके पौधे में विषैला पदार्थ पाया जाता है।
  • जेट्रोफा का वृक्ष लगभग 2 से 3 मीटर का होता है। जेट्रोफा को बिना पानी के या कम पानी के भी उगाया जा सकता है इसलिए जेट्रोफा में अकाल सहने की अद्भुत क्षमता होती है। यह लगभग 2 साल तक का अकाल सह सकता है।

साल

saal tree
साल (Saal Tree)   Img Credit : wikipedia.org
  • साल वृक्ष की लकड़ी इमारती कामों में प्रयोग की जाती है, इसकी लकड़ी काफी कठोर, मजबूत, भारी एवं भूरे रंग की होती है।
  • साल वृक्ष की लकड़ी का उपयोग दरवाजे, खिड़की, नाव आदि बनाने में भी किया जाता है।
  • साल को शाल, सखुआ या साखू आदि नामों से भी जाना जाता है, संस्कृत में साल को अग्निवल्लभा, अश्वकर्ण या अश्वकर्णिका आदि नामों से जाना जाता है।
  • रानी माया ने साल वृक्ष के नीचे ही महात्मा बुद्ध को जन्म दिया था इसलिए साल वृक्ष को बौद्ध धर्म में बहुत ही पवित्र वृक्ष माना जाता है।
  • जैन धर्म के 24वें तीर्थंकर महावीर स्वामी को साल वृक्ष के नीचे ही ज्ञान प्राप्त हुआ था।
  • साल वृक्ष राजस्थान राज्य के उदयपुर, चित्तौड़गढ़, सिरोही, अजमेर एवं अलवर जिलों में प्रमुखतः पाया जाता है।
  • साल वृक्ष का उपयोग वर्षों से आयुर्वेद में कई बीमारियों के इलाज के लिए होता आ रहा है, श्वास संबंधी बीमारी, एनीमिया, डायबिटीज आदि।

पढ़ें – राजस्थान में जल संग्रहण और संरक्षण की परम्परागत विधियाँ। 

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