कुली बेगार आन्दोलन या कुली बेगार प्रथा क्या थी ? किसके अथक प्रयास से कुली बेगार प्रथा का अंत हुआ और कुली बेगार आंदोलन एक रक्तहीन क्रान्ति के रूप में जाना गया ?
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कुली बेगार प्रथा क्या थी
आम आदमी से कुली का काम बिना पारिश्रमिक दिये कराने को कुली बेगार (Kuli Begar) कहा जाता था, विभिन्न ग्रामों के प्रधानों (पधानों) का यह दायित्व होता था, कि वह एक निश्चित अवधि के लिये, निश्चित संख्या में कुली शासक वर्ग को उपलब्ध करायेगा। इस कार्य हेतु प्रधान के पास बाकायदा एक रजिस्टर भी होता था, जिसमें सभी ग्राम वासियों के नाम लिखे होते थे और सभी को बारी-बारी यह काम करने के लिये बाध्य किया जाता था।
यह तो घोषित बेगार था और इसके अतिरिक्त शासक वर्ग के भ्रमण के दौरान उनके खान-पान से लेकर हर ऐशो-आराम की सुविधायें भी आम आदमी को ही जुटानी पड़ती थी।
कुली बेगार आन्दोलन का कारण
- प्रधानों, जमीदारों और पटवारियों के मिलीभगत से व आपसी भेद-भाव के कारण जनता के बीच असन्तोष बढता गया क्योंकि गांव के प्रधान व पटवारी अपने व्यक्तिगत हितों को साधने या बैर भाव निकालने के लिये इस कुरीति को बढावा देने लगे। इस कुप्रथा के खिलाफ लोग एकत्रित होने लगे।
- कभी-कभी तो लोगों को अत्यन्त घृणित काम करने के लिये भी मजबूर किया जाता था। जैसे कि अंग्रेजों की कमोड (शौचासन) या गन्दे कपडे आदि ढोना। इसके विरोध में भी लोग परस्पर एकजुट होने लगे।
- अंग्रेजों द्वारा कुलियों का शारीरिक व मानसिक रूप से दोहन किया जा रहा था।
कुली बेगार आन्दोलन का इतिहास
सबसे पहले चन्द शासकों ने राज्य में घोडों से सम्बन्धित एक कर ‘घोडालों’ निरूपति किया था, सम्भवतः कुली बेगार प्रथा का यह एक प्रारंभिक रूप था। आगे चल गोरखाओं के शासन में इस प्रथा ने व्यापक रूप ले लिया लेकिन व अंग्रेजों ने अपने प्रारम्भिक काल में ही इसे समाप्त कर दिया। पर धीरे-धीरे अंग्रेजों ने न केवल इस व्यवस्था को पुनः लागू किया परंतु इसे इसके दमनकारी रूप तक पहुंचाया। पहले यह कर तब आम जनता पर नहीं वरन् उन मालगुजारों पर आरोपित किया गया था जो भू-स्वामियों या जमीदारों से कर वसूला करते थे।
अतः देखा जाये तो यह प्रथा उन काश्तकारों को ही प्रत्यक्ष तौर पर प्रभावित करती थी जो जमीन का मालिकाना हक रखते थे। पर वास्तविकता के धरातल पर सच यह था इन सम्पन्न भू-स्वामी व जमीदारों ने अपने हिस्सों का कुली बेगार, भूमि विहीन कृषकों, मजदूरों व समाज के कमजोर तबकों पर लाद दिया जिन्होंने इसे सशर्त पारिश्रमिक के रूप में स्वीकार लिया। इस प्रकार यह प्रथा यदा कदा विरोध के बावजूद चलती रही।
कुली बेगार आन्दोलन की पृष्ठभूमि
1857 में विद्रोह की चिंगारी कुमाऊं में भी फैली। हल्द्वानी कुमांऊ क्षेत्र का प्रवेश द्वार था। वहां से उठे विद्रोह के स्वर को उसकी प्रारंभिक अवस्था में ही अंग्रेज कुचलने में समर्थ हुए। लेकिन उस समय के दमन का क्षोभ छिटपुट रूप से समय समय पर विभिन्न प्रतिरोध के रूपों में फूटता रहा। इसमें अंग्रेजों द्वारा कुमांऊ के जंगलों की कटान और उनके दोहन से उपजा हुआ असंतोष भी था। यह असंतोष घनीभूत होते होते एक बार फिर बीसवी सदी के पूर्वार्द्व में ’कुली विद्रोह‘ के रूप में फूट पड़ा।
1913 में कुली बेगार (Kuli Begar) यहां के निवासियों के लिये अनिवार्य कर दिया गया। इसका हर जगह पर विरोध किया गया, बद्री दत्त पाण्डे जी ने इस आंदोलन की अगुवाई की। अल्मोड़ा अखबार के माध्यम से उन्होंने इस कुरीति के खिलाफ जनजागरण के साथ-साथ विरोध भी प्रारम्भ कर दिया।
1920 में नागपुर में कांग्रेस का वार्षिक अधिवेशन हुआ, जिसमें पं० गोविन्द बल्लभ पंत, बद्रीदत्त पाण्डे, हर गोबिन्द पन्त, विक्टर मोहन जोशी, श्याम लाल शाह आदि लोग सम्मिलित हुये और बद्री दत्त पाण्डे जी ने कुली बेगार आन्दोलन के लिये महात्मा गांधी से आशीर्वाद लिया और वापस आकर इस कुरीति के खिलाफ जनजागरण करने लगे।
कुली बेगार प्रथा का अंत
13-14 जनवरी, 1921 को उत्तरायणी पर्व के अवसर पर कुली बेगार आन्दोलन की शुरुआत हुई, इस आन्दोलन में आम आदमी की सहभागिता रही, अलग-अलग गांवों से आये लोगों के हुजूम ने इसे एक विशालकाय प्रदर्शन में बदल दिया। सरयू और गोमती के संगम (बगड़) के मैदान से इस आन्दोलन का उदघोष हुआ।
इस आन्दोलन के शुरू होने से पहले ही जिलाधिकारी द्वारा पं० हरगोबिन्द पंत, लाला चिरंजीलाल और बद्री दत्त पाण्डे को नोटिस थमा दिया लेकिन इसका कोई असर उनपर नहीं हुआ, उपस्थित जनसमूह ने सबसे पहले बागनाथ जी के मंदिर में जाकर पूजा-अर्चना की और फिर 40 हजार लोगों का जुलूस सरयू बगड़ की ओर चल पड़ा, जुलूस में सबसे आगे एक झंडा था, जिसमें लिखा था “कुली बेगार बन्द करो”, इसके बाद सरयू मैदान में एक सभा हुई, इस सभा को सम्बोधित करते हुये बद्रीदत्त पाण्डे जी ने कहा “पवित्र सरयू का जल लेकर बागनाथ मंदिर को साक्षी मानकर प्रतिज्ञा करो कि आज से कुली उतार, कुली बेगार, बरदायिस नहीं देंगे।” सभी लोगों ने यह शपथ ली और गांवों के प्रधान अपने साथ कुली रजिस्टर लेकर आये थे, शंख ध्वनि और भारत माता की जय के नारों के बीच इन कुली रजिस्टरों को फाड़कर संगम में प्रवाहित कर दिया। यहीं से इस कुप्रथा का अंत हो गया।
अल्मोडा (Almora) का तत्कालीन डिप्टी कमिश्नर डायबल भीड़ में मौजूद था, उसने बद्री दत्त पाण्डे जी को बुलाकर कहा कि “तुमने दफा 144 का उल्लंघन किया है, तुम यहां से तुरंत चले जाओ, नहीं तो तुम्हें हिरासत में ले लूंगा।” लेकिन बद्रीदत्त पाण्डे जी ने दृढ़ता से कहा कि “अब मेरी लाश ही यहां से जायेगी”, यह सुनकर वह गुस्से में लाल हो गया, उसने भीड़ पर गोली चलानी चाही, लेकिन पुलिस बल कम होने के कारण वह इसे मूर्त रुप नहीं दे पाया।
इस सफल आंदोलन के बाद जनता ने बद्री दत्त पाण्डे जी को कुमाऊं केसरी की उपाधि दी, इस आन्दोलन का लोगों ने समर्थन ही नहीं किया बल्कि कड़ाई से पालन भी किया और इस प्रथा के विरोध में लोगों का प्रदर्शन जारी रहा। इसकी परिणिति यह हुई कि सरकार ने सदन में एक विधेयक लाकर इस प्रथा को समाप्त कर दिया।
इस आंदोलन से महात्मा गांधी बहुत प्रभावित हुये और स्वयं बागेश्वर आये और चनौंदा में गांधी आश्रम की स्थापना की। इसके बाद गांधी जी ने यंग इंडिया में इस आन्दोलन के बारे में लिखा कि “इसका प्रभाव संपूर्ण था, यह एक रक्तहीन क्रान्ति थी।”
Important Notes
Q. ‘कुली बेगार प्रथा ‘ का हल निकालने के लिए खच्चर सेना की स्थापना करने वाले कमिश्नर का नाम था?
Ans. कमिश्नर ट्रेल
Q. ‘उत्तराखंड में कुली-बेगार प्रथा’ के लेखक कौन हैं?
Ans. डॉ. शेखर पाठक
Q. ‘बेगार आंदोलन’ कब और कहाँ से आरम्भ हुआ ?
Ans. 13-14 जनवरी, 1921 को बागेश्वर में
Q. जनवरी 1921 में निम्न में से किस स्थान पर सरयू नदी तट पर ‘कुली बेगार’ न देने की शपथ ली गई ?
Ans. बागेश्वर
Q. कुली-बेगार प्रथा का अंत किस मेले के दौरान हुआ था ?
Ans. उत्तरायणी मेले में
Q. कुली बेगार आंदोलन का नेतृत्व किनके द्वारा किया गया ?
Ans. बद्रीदत्त पाण्डेय, हरगोविंद पंत एवं चिरंजीलाल
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Respected Sir , I need a answar plz try to give me if possible.
Name the commissioner who founded ‘Mule Army ‘ to get the solution of “Kuli _ Begar custom”
SIR BAHUT BADIYA….TOPIC KE SAATH QUESTION BHI DE DO TO TOPIC KO SMAJHNE ME AUR BE ASANHI HONGI…YANI TOPIC ME QUESTION KYA KYA BANENGE..
DHANYAWAD APKA…
कुली उतार और कुली बरदायश के बारे में जानकारी प्रदान कीजिएगा
“There were three forms of begar, viz, coolie begar, coolie utar, and coolie burdayash. All these were commonly referred to as coolie begar. However, coolie begar specifically meant forced labour without payment. Coolie utar was different in that it carried an obligation of minimum wage payment, although often it was taken without payment. Finally, coolie burdayas referred to the extraction of different forms of produce—food, fuel, fodder, etc.—for officials, soldiers, hunters, surveyors, tourists, and their animals.”
nice
Sir you efforts are great.I am very fortunte to get chance to study such a good uttarakhand syllabus. Thank you sir
mock test start kare