क्या है तीन तलाक? यह मुसलमान समाज में तलाक लेने का वह जरिया है जिसमें मुस्लिम पुरुष अपनी पत्नी को तीन बार “तलाक-तलाक-तलाक” बोलकर अपनी शादी रद्द कर सकता है। तलाक का यह जरिया मुस्लिम पर्सनल लॉ के हिसाब से कानूनी है, फिर भी बहुत सारी मुस्लिम वर्ग की महिलाएं इसका विरोध करती है। तीन तलाक के वजह से मुस्लिम महिलाओं को डर-डर के रहना पड़ता है, क्योंकि यह तीन शब्द उनकी जिंदगी बर्बाद कर सकते हैं। यह मानवीय हकों का उल्लंघन है, भारतीय कानून के हिसाब से स्त्री और पुरुष दोनों को समान हक होते हैं। पर तीन तलाक के मामले में महिलाओं पर यह एक प्रकार से अन्याय है।
तीन तलाक के बारे में जानने से पहले हमे शरीयत और मुस्लिम पर्सनल लॉ के बारे मे थोड़ी जानकारी होनी चाहिए –
शरीयत क्या है?
अरब में इस्लाम के बतौर धर्म आने से पहले, वहां एक कबीलाई सामाजिक संरचना थी। कबिलों में जो नियम और कानून थे वे लिखे हुए नहीं थे। ये कानून समय के साथ-साथ समाज में जो बदलाव हुए उसके साथ बदलते गए। सातवीं सदी में मदीना में मुस्लिम समुदाय की स्थापना हुई और फिर जल्द ही आस-पास के इलाकों में यह फैलने लगा। इस्लाम की स्थापना के साथ ही कबीलाई रीति रिवाजों पर कुरान हावी हो गई। कुरान में लिखे और अलिखित रीति रिवाज शरीयत के तौर पर जाने जाते हैं। इस्लामिक समाज शरीयत के मुताबिक चलता है। इसके साथ ही शरीयत हदीस (पैगंबर के काम और शब्द) पर भी आधारित है।
भारत में कैसे लागू हुआ मुस्लिम पर्सनल लॉ?
भारत में मुस्लिम पर्सनल लॉ एप्लिकेशन एक्ट साल 1937 में पास हुआ था। इसके पीछे मकसद भारतीय मुस्लिमों के लिए एक इस्लामिक कानून कोड तैयार करना था। उस वक्त भारत पर शासन कर रहे ब्रिटिशों की कोशिश थी कि वे भारतीयों पर उनके सांस्कृतिक नियमों के मुताबिक ही शासन करें। तब (1937) से मुस्लिमों के शादी, तलाक, विरासत और पारिवारिक विवादों के फैसले इस एक्ट के तहत ही होते हैं। एक्ट के मुताबिक व्यक्तिगत विवादों में सरकार दखल नहीं कर सकती।
क्या भारत में पर्सलन लॉ मुसलमानों के लिए ही है ?
भारत में अन्य धार्मिक समूहों के लिए भी ऐसे कानून बनाए गए हैं। देश में अलग-अलग धर्मों के लिए अलग-अलग सिविल कोड है। उदाहरण के तौर पर 1956 का हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम, जिसके तहत हिंदू, बुद्ध, जैन और सिखों में विरासत में मिली संपत्ति का बंटवारा होता है। इसके अलावा 1936 का पारसी विवाह-तलाक एक्ट और 1955 का हिंदू विवाह अधिनियम इसके उदाहरण हैं।
क्या भारत में शरीयत एप्लिकेशन एक्ट में बदलाव नहीं हो सकता ?
शरीयत एक्ट की प्रासंगिकता पर पहले भी कई बार बहस हो चुकी है। पहले ऐसे कई मामले आए हैं, जब महिलाओं के सुरक्षा से जुड़े अधिकारों का धार्मिक अधिकारों से टकराव होता रहा है। इसमें शाह बानो केस प्रमुख है। 1985 में 62 वर्षीय शाह बानो ने एक याचिका दाखिल करके अपने पूर्व पति से गुजारे भत्ते की मांग की थी। सुप्रीम कोर्ट ने उनकी गुजारे भत्ते की मांग को सही बताया था, लेकिन इस फैसले का इस्लामिक समुदाय ने विरोध किया था। मुस्लिम समुदाय ने फैसले को कुरान के खिलाफ बताया था। इस मामले को लेकर काफी विवाद हुआ था। उस वक्त सत्ता में कांग्रेस सरकार थी। सरकार ने उस वक्त Muslim Women (Protection of Rights on Divorce Act) पास किया था। इस कानून के तहत यह जरूरी किया गया था कि हर एक पति अपनी पत्नी को गुजारा भत्ता देगा। लेकिन इसमें प्रावधान था कि यह भत्ता केवल इद्दत की अवधि के दौरान ही देना होगा, इद्दत तलाक के 90 दिनों बाद तक ही होती है।
पर्सनल लॉ के खिलाफ विरोध-प्रदर्शनों की लंबी सूची है। साल 1930 से लेकर अब तक महिलाओं के आंदोलन का अहम एजेंडा सभी धर्मों के पर्सनल लॉ में महिलाओं के साथ भेदभाव ही रहा है। मार्च 2016 में केरल हाईकोर्ट के जज जस्टिस बी केमल पाशा ने विरोध जाहिर किया था कि मुस्लिम पर्सनल लॉ के तहत मुस्लिम महिलाओं को समानता का अधिकार नहीं दिया जाता। हालांकि, पर्सनल लॉ में बदलाव के खिलाफ प्रदर्शन इसमें संशोधन को मुश्किल बना देते हैं। एक्ट के मुताबिक व्यक्तिगत मामलों में सरकार को दखल नहीं देना चाहिए। इनका निपटारा कुरान और हदीस की व्याख्या के मुताबिक ही होगा।
अब हम तीन तलाक के मुद्दे पर बात करते है –