उत्तराखंड के प्रमुख मेले और पर्व : उत्तराखंड में मनाये जाने वाले मेले व पर्व उनकी विविधता के कारण काफी प्रसिद्ध हैं। जैसे नंदादेवी राज यात्रा के दिन होने वाला नंदादेवी मेला, देवीधुरा में मनाया जाने वाला बग्वाल मेला जिसमें लोगों के द्वारा एक दूसरे पर पत्थरों की बारिश की जाती है।
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उत्तराखंड राज्य के प्रमुख मेले एवं पर्व
नंदा देवी मेला, अल्मोड़ा
हिमालय की पुत्री नंदादेवी की पूजा-अर्चना के लिए प्रतिवर्ष भाद्र शुक्ल पक्ष की पंचमी से राज्य के कई क्षेत्रों में नंदादेवी के मेले शुरू होते है। अल्मोड़ा के नंदादेवी परिषर में इस दिन बहुत बड़ा मेला लगता है। पंचमी के दिन केलाखाम पर नंदा-सुनंदा की प्रतिमा तैयार की जाती है, और अष्टमी के दिन प्रतिमाओं की पूजा-अर्चना होती है।
श्रावणी मेला, जागेश्वर
अल्मोड़ा के जागेश्वर धाम में प्रतिवर्ष श्रावण में एक माह तक श्रावणी मेला लगता है। 12-13वीं शताब्दी में निर्मित जागेश्वर मंदिर में इस अवसर पर महिलाएं संतान प्राप्ति के लिए रात भर घी के दीपक हाथ में लिए पूजा-अर्चना करती हैं और मनोकामनाएं पूर्ति हेतु आशीर्वाद मांगती हैं। इस दौरान ढोल-नगाड़े वह हुड़की की मधुर थाप पर ग्रामीणों का जन-समूह नाचते-गाते वहां पहुंचता है तथा लोक कलाकार अपनी कला का प्रदर्शन करते हैं।
सोमनाथ मेला, रानीखेत
अल्मोड़ा के रानीखेत के पास रामगंगा नदी के तट पर स्थित पाली-पछाऊ क्षेत्र मासी में बैशाख महीने के अंतिम रविवार से सोमनाथ का मेला शुरु होता है। पहले दिन के रात्रि में सल्टिया सोमनाथ मेला तथा दूसरे दिन ठुल कौतिक लगता है। जिसमे पशुओं का क्रय-विक्रय अधिक होता है। ठुल कौतिक के बाद नान कौतिक व उसके अगले दिन बाजार लगता है। इस में दूर-दूर के गायक कलाकार भी भाग लेते हैं। इस मौके पर झोडे, छपेली, बैर, चांचरी व भगनौल आदि नृत्य होते हैं।
गणनाथ मेला, अल्मोड़ा
अल्मोड़ा जनपद के गणनाथ (तालुका) में प्रत्येक वर्ष कार्तिक पूर्णिमा को गणनाथ मेला लगता है। मान्यता है की रात-भर हाथ में दीपक लेकर पूजा करने से निसंतान दंपत्ति को पुत्र रत्न की प्राप्ति होती है।
स्याल्दे-बिखौती मेला, द्वाराहाट
प्रतिवर्ष द्वाराहाट (अल्मोड़ा) में वैशाख माह के पहले दिन बिखौती मेला लगता है, पहली रात्रि को इस मेले को स्याल्दे मेला कहते है। इस मेले का आरंभ कत्यूरी शासन काल में हुआ माना जाता है। इस मेले में लोकनृत्य तथा गीत विशेषकर झोड़ा व भगनौल गाये जाते है।
श्री पूर्णागिरी मेला, टनकपुर
चंपावत के टनकपुर के पास अन्नपूर्णा शिखर पर स्थित श्री पूर्णागिरी मंदिर में प्रत्येक वर्ष चैत्र व आश्विन की नवरात्रियों में मेला लगता है, इसे ही पूर्णागिरि मेला कहा जाता है। श्री पूर्णागिरी देवी मंदिर की गणना देवी भगवती जी के 108 सिद्धपीठ में की जाती है।
बग्वाल मेला, देवीधुरा
चंपावत जिले के देवीधुरा नामक स्थल पर मां वाराहीदेवी मंदिर के प्रांगण में प्रतिवर्ष रक्षा बंधन (श्रावणी पूर्णिमा) के दिन बग्वाल मेले का आयोजन किया जाता है। स्थानीय बोली में इसे ‘आषाढी कौतिक’ भी कहा जाता है। इस मेले की मुख्य विशेषता लोगों द्वारा एक दूसरों पर पत्थरों की वर्षा करना है। जिसमें चंयाल, वालिक, गहड़वाल व लमगाडीया चार खामों के लोग भाग लेते हैं। बग्वाल खेलने वालों को द्योके कहा जाता है।
लडी धुरा मेला, चम्पावत
लडी धुरा मेला चंपावत के बाराकोट में पद्मा के देवी मंदिर में लगता है। मेले का आयोजन कार्तिक पूर्णिमा के दिन होता है। इसमें स्थानी लोग बाराकोट तथा काकड़ गांव में धुनी बनाकर रात-भर गाते हुए देवता की पूजा करते है। दूसरे दिन देवताओं को रथ में बैठाया जाता है। भक्तजन मंदिर की परिक्रमा कर पूजा करते हैं।
मानेश्वर मेला, चम्पावत
चंपावत के मायावती आश्रम के पास मानेश्वर नामक चमत्कारी शिला के समीप मानेश्वर मेले का आयोजन होता है। मानेश्वर नामक चमत्कारी शिला के पूजन से पशु, विशेषकर दुधारु पशु स्वस्थ रहते है।
थल मेला, पिथौरागढ़
पिथौरागढ़ के बालेश्वर थल मंदिर में प्रतिवर्ष बैशाखी को थल मेला लगता है। 13 अप्रैल, 1940 को यहां बैशाखी के अवसर पर जलियांवाला दिवस मनाए जाने के बाद इस मेले की शुरुआत हुई। छठे दशक तक यह मेला लगभग 20 दिन तक चलता था, लेकिन आज यह मेला कुछ ही दिनों में समाप्त हो जाता है।
जौलजीवी मेला, पिथौरागढ़
पिथौरागढ़ के जौलजीवी (काली एवं गोरी नदी के संगम) पर प्रतिवर्ष कार्तिक माह (14 नवंबर) में जौलजीवी मेला लगता है। इस मेले की शुरुआत सर्वप्रथम 1914 में मार्गशीर्ष संक्रांति को हुई थी। इस मेले में जौहार, दारमा, व्यास आदि जनजाति (Tribes) बहुल क्षेत्रों के लोग ऊनी उत्पाद जैसे दन, चुटके, पंखिया, कालीन, पश्मीने लेकर पहुंचते हैं।
चैती मेला, काशीपुर
उधम सिंह नगर के काशीपुर के पास स्थित कुंडेश्वरी देवी के मंदिर में प्रतिवर्ष चैती का मेला लगता है, यह 10 दिन तक चलता है। देवी बाल सुंदरी को कुमाऊं के चन्दवंशीय राजाओं की कुलदेवी माना जाता है।
माघ मेला, उत्तरकाशी
उत्तरकाशी नगर में प्रतिवर्ष माघ के महीने में माघ मेला बहुत ही धूम-धाम से मनाया जाता है। यह मेला 1 सप्ताह तक चलता है। इस अवधि में ग्रामीवासी अपने देवी-देवताओं की डोली उठाकर यहां लाते हैं तथा गंगा स्नान कराते हैं। सरकारी प्रयासों से मेले में विभिन्न सांस्कृतिक कार्यक्रमों का आयोजन भी किया जाता है।
बिस्सू मेला, उत्तरकाशी
बिस्सु मेला प्रतिवर्ष उत्तरकाशी के भुटाणु, टिकोची, किरोली, मैंजणी, आदि गांवों द्वारा सामूहिक रुप से मनाया जाता है। विषुवत संक्रांति के दिन लगने के कारण यह बिस्सू मेला कहा जाता है। यह मेला धनुष-बाणों की रोमांचकारी युद्ध के लिए प्रसिद्ध है। देहरादून के चकराता तहसील के जौनसार-भावर व आराकोट-बंगाण क्षेत्रों में भी बिस्सू मेला हर्षोल्लास से मनाया जाता है।
गिन्दी मेला, पौड़ी गढ़वाल
गिन्दी मेला पौड़ी गढ़वाल के डाडामण्डी में प्रतिवर्ष मकर संक्रांति के अवसर पर भटपुण्डी देवी के मंदिर पर लगता है।
बैकुंठ चतुर्दशी मेला, पौड़ी गढ़वाल
बैकुंठ चतुर्दशी मेला पौड़ी जिले के श्रीनगर में कमलेश्वर मंदिर पर बैकुंठ चतुर्दशी के अवसर पर प्रतिवर्ष आयोजित किया जाता है। इस दिन श्रीनगर बाजार को दुल्हन की तरह सजाया जाता है। कमलेश्वर मंदिर में पति-पत्नी रातभर हाथ में घी के दीपक थामे संतान प्राप्ति हेतु पूजा अर्चना करते हैं और मनोकामना पूर्ण होने का आशीर्वाद प्राप्त करते हैं।
दनगल मेला, पौड़ी गढ़वाल
दंगल मेला पौड़ी के सतपुली के पास दनगल के शिव मंदिर में प्रतिवर्ष महाशिवरात्रि को लगता है। श्रद्धालुजन इस दिन उपवास रखकर पूजा-अर्चना करते है।
चंद्रबदनी मेला, टिहरी गढ़वाल
यह मेला प्रतिवर्ष अप्रैल में टिहरी के चन्द्रबदनी मंदिर में लगता है। यह मंदिर गढ़वाल के प्रसिद्ध 4 शक्तिपीठों में से एक माना जाता है।
रण भूत कौथिग, टिहरी गढ़वाल
टिहरी गढ़वाल के नैलचामी पट्टी के ठेला गाँव में प्रत्येक वर्ष कार्तिक माह में लगने वाला यह मेला राजशाही के समय विभिन्न युद्धों में मारे गये लोगों की याद में ‘भुत-नृत्य’ के रूप में होता है।
विकास मेला, टिहरी गढ़वाल
टिहरी गढ़वाल में प्रतिवर्ष विकास मेले का आयोजन होता है। इसे विकास प्रदर्शनी के नाम से भी जाना जाता है।
हरियाली पुड़ा मेला, कर्णप्रयाग
कर्णप्रयाग (चमोली) में नौटी गांव में चैत्र मास के पहले दिन हरियाली पुड़ा मेला लगता है। नौटी गांव के लोग नंदादेवी को धियाण (विवाहित लड़कियां) मानते हुए उनकी पूजा-अर्चना करते है। इस अवसर पर धियाणिया (विवाहित लड़कियां) अपने मायके जाती हैं और घर परिवार के सदस्यों को उपहार देती हैं। इस मेले के दूसरे दिन यज्ञ होता है, जिसमें श्रद्धालुजन उपवास रखते हैं।
गोचर मेला, चमोली
गोचर मेला चमोली जिले के ऐतिहासिक एवं सांस्कृतिक केंद्र गोचर में लगने वाला औद्योगिक एवं विकास मेला (Industrial and Development Fair) है। जिसे 1943 में गढ़वाल के तत्कालिक डिप्टी कमिश्नर बर्नेडी ने शुरु किया था। उस समय इस मेले का उद्देश्य सीमांत क्षेत्रवासियों को क्रय-विक्रय का एक मंच उपलब्ध कराना था। वर्तमान में पंडित जवाहरलाल नेहरू के जन्मदिन पर शुरू होने वाले इस ऐतिहासिक मेले में उत्तराखंड के विकास से जुड़ी विभिन्न संस्कृतियां का खुल कर प्रदर्शन किया जाता है। साथ ही कृषि, बागवानी, रेशम कीट पालन, हथकरघा उद्योग, नवीन वैज्ञानिक तकनीक, महिला उत्थान योजना, ऊनी वस्त्र उद्योग एवं गढ़वाल मंडल विकास निगम द्वारा उत्पादित विभिन्न प्रकार की वस्तुओं का प्रदर्शन होता है।
नुणाई मेला, देहरादून
नूणाई मेला देहरादून के जौनसार क्षेत्र में श्रावण माह में लगता है। इसे जंगलों में भेड़ बकरियों को पालने वालों के नाम से जाना जाता है। भेड़ बकरियों के चराने वाले रात्री-विश्राम जंगल में बनी गुफाओं में करते हुए पूरा साल जंगलों में बिताते है। जैसे ही इस महीने का समय होता है वे गांव की और आने लगते है।
टपकेश्वर मेला, देहरादून
देहरादून की देवधारा नदी के किनारे एक गुफा में स्थित इस शिव मंदिर की मान्यता दूर-दूर तक है। मंदिर में स्थित शिवलिंग पर स्वत: ही ऊपर से पानी टपकता रहता है। शिवरात्रि पर यहाँ विशाल मेले टपकेश्वर मेले का आयोजन होता है।
झंडा मेला, देहरादून
झंडा मेला देहरादून में प्रतिवर्ष चैत्र कृष्ण की पंचमी से शुरु होता है। यह दिन गुरु राम राय के जन्म दिन होने के साथ ही उनके देहरादून आगमन का दिन भी है। सन 1676 में इसी दिन उनकी प्रतिष्ठा में एक बड़ा उत्सव मनाया जाता था। इस दिवस के कुछ दिन पूर्व पंजाब से भी गुरु राम राय जी के भक्तों का बड़ा समूह पैदल चलकर देहरादून आता है। इस भक्त समूह को संगत कहते है। दरबार से गुरु राम राय के गद्दी के श्री महंत आमंत्रण देने और उनका स्वागत करके एकादशी को यमुना तट पर 45 किलोमीटर दूर राइयाँवाला जाते है। ध्वजदंड भी दरबार साहिब से ही भेजा जाता है। उन्हें प्रेम और आदर के साथ देहरादून लाया जाता है।
झंडा मेले में देश-विदेश से अनेक भक्त आते है। श्री महंत अपनी सुंदर और गौरवशाली पोशाक पहनकर जुलूस करते हुए शहर की परिक्रमा करते है। जिसमें हजारों की संख्या में भक्त होते है और झण्डे जी की पूजा होती है।
कुंभ मेला, हरिद्वार
कुम्भ मेला हरिद्वार में गंगा के तट पर प्रत्येक बारहवे वर्ष गुरु के कुंभ राशि और सूर्य के मेष राशि पर स्थित होने पर लगता है। प्रत्येक छठवे वर्ष अर्द्धकुम्भ लगता है। चीनी यात्री ह्वेनसांग ने इस मेले को मोक्ष पर्व कहा है। उसके अनुसार महाराजा हर्षवर्धन ने भी कुंभ महोत्सव पर हरिद्वार में हरि की पौड़ी पर यज्ञ कर स्नान एवं दान का पुण्य लाभ प्राप्त किया था।
पिरान कलियर बाबा मेला, रुड़की
पिरान कलियर बाबा मेला रूड़की से लगभग 8 किलोमीटर दूर कलियर गांव में लगता है। यह एक प्रसिद्ध मेला है जिसमें जनसैलाब उमड़ता है। कलियर गांव में सूफी हजरत अलाउद्दीन अली अहमद, इमामुद्दीन तथा कलियर साहब की मजार है। यहां प्रतिवर्ष साबिर का उर्स मनाया जाता है। इस में दूर-दूर से श्रद्धालु आते है।
उत्तरायणी मेला, बागेश्वर
मकर संक्रांति के अवसर पर कुमाऊ-गढ़वाल क्षेत्र में कई नदी-घाटों एवं मंदिरों में उत्तरायणी मेला लगता है। सन् 1921 में बागेश्वर में सरयू नदी के किनारे इसी मेले में उस समय प्रचलित कुली-बेगार प्रथा को समाप्त करने का संकल्प किया गया था। और कुली-बेगार संबंधित सभी कागजात सरयू नदी में बहा दिए गए थे।
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