उत्तराखंड के प्रमुख नृत्य एवं उत्तराखंड की प्रमुख नृत्य कला : उत्तराखंड राज्य में लोक-नृत्यों (Folk Dances) की परंपरा बहुत प्राचीन है। विभिन्न अवसरों पर लोकगीतों (Folk Songs) के साथ-साथ या बिना लोकगीतों के बाजों (Instrument) की धुन पर नृत्य किए जाते है। राजा महाराजाओं के समय से ही उत्तराखंड प्रदेश में कई प्रसिद्ध मेले लगते रहे हैं जहाँ पर की लोक कला एवं नृत्य को बहुत बढ़ावा मिला है, परंतु समय के अनुसार भारत में पाश्चात्य संस्कृति का बोलबाला होने के कारण यहाँ के लोक नृत्य कला धुंधला सी गयी है।
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उत्तराखंड के प्रमुख लोक नृत्य
थडिया नृत्य
गढ़वाल क्षेत्र में बसंत पंचमी से बिखोत तक विवाहित लड़कियों द्वारा घर के थाड (आगन/चौक) में थडिया गीत गाए जाते है और नृत्य किए जाते है। यह नृत्य प्राय: विवाहित लड़कियों द्वारा किया जाता है, जो पहली बार मायके जाती है।
सरौं नृत्य
यह गढ़वाल क्षेत्र का ढ़ोल के साथ किए जाने वाला युद्ध गीत नृत्य है। यह नृत्य टिहरी व उत्तरकाशी में प्रचलित है।
पौणा नृत्य
यह भोटिया जनजाति का नृत्य गीत है। यह सरौं नृत्य की ही एक शैली है। दोनों नृत्य विवाह के अवसर पर मनोरंजन के लिए किए जाते है।
हारुल नृत्य
यह जौनसारी जनजातियों द्वारा किया जाता है। इसकी विषयवस्तु पाण्डवों के जीवन पर आधारित होती है। इस नृत्य के समय रमतुला नामक वाद्ययंत्र अनिवार्य रुप से बजाया जाता है।
बुड़ियात लोकनृत्य
जौनसारी समाज में यह नृत्य जन्मोत्सव, शादी-विवाह एवं हर्षोल्लास के अन्य अवसरों पर किया जाता है।
पण्डवार्त नृत्य
यह गढ़वाल क्षेत्र में पांडवों के जीवन प्रसंगों पर आधारित नवरात्रि में 9 दिन चलने वाले इस नृत्य/नाट्य आयोजन में विभिन्न प्रसंगों के 20 लोकनाट्य होते है। चक्रव्यूह, कमल व्यूह, गैंडी-गैंडा वध आदि नाट्य विशेष के रुप में प्रसिद्ध है।
मंडाण नृत्य
यह गढ़वाल क्षेत्र के टिहरी एवं उत्तरकाशी जनपदों में देवी-देवता पूजन और शादी-विवाह के मौकों पर यह नृत्य होता है। इस नृत्य में शरीर के हर अंग का इस्तेमाल होता है। एकाग्रता इस नृत्य की पहली शर्त है। नृत्य का अंत ‘चाली’ या ‘भौर’ से होता है। इस नृत्य को केदार नृत्य के नाम से भी जाना जाता है।
लंगविर नृत्य
यह पुरुषों द्वारा किए जाने वाला नट नृत्य है। जिसमें पुरुष खंभे की शिखर पर चढ़कर उसी पर संतुलन बनाकर ढोल-नगाड़ो पर नृत्य करता है।
चौफला नृत्य
राज्य के गढ़वाल क्षेत्र में स्त्री-पुरुषों द्वारा एक साथ अलग-अलग टोली (Group) बनाकर किया जाने वाला यह श्रृंगार भाव प्रधान नृत्य है। ऐसी मान्यता है, की इस नृत्य को पार्वती ने शिव को प्रसन्न करने के लिए किया था। इसमें किसी वाद्य यंत्र का प्रयोग न होकर हाथों की ताली, पैरों की थाप, झांझ की झंकार, कंगन व पाजेब की सुमुधुर ध्वनियाँ मादकता प्रदान करती है। इस नृत्य में पुरुष नृतकों को चौफ़ुला तथा स्त्री नृतकों को चौफुलों कहते है।
तांदी नृत्य
गढ़वाल के उत्तरकाशी और जौनपुर (टिहरी) में यह नृत्य किसी विशेष खुशी के अवसर पर एवं माघ महीने में किया जाता है। इस नृत्य के साथ में गाए जाने वाले गीत तात्कालिक घटनाओं, प्रसिद्ध व्यक्ति के कार्यों पर रचित होती है।
झुमैलो नृत्य
तात्कालिक प्रसंगों पर आधारित गढ़वाल क्षेत्र का यह गायन नृत्य झूम-झूम कर नवविवाहित कन्याओं द्वारा किया जाता है। झुमैलो की भावना प्रकृति या मायके की स्मृति से जुड़ी हुई हो सकती है।
चांचरी नृत्य
यह गढ़वाल क्षेत्र में माघ माह की चांदनी रात में स्त्री-पुरुषों द्वारा किए जाने वाला एक शृंगारिक नृत्य है। मुख्य गायक वृत के बीच में हुडकी बजाते हुए नृत्य करता है, और कुमाऊं क्षेत्र में इस नृत्य को झोड़ा कहते है।
छोपती नृत्य
यह गढ़वाल क्षेत्र का नृत्य प्रेम एवं रूप की भावना से युक्त स्त्री-पुरुष का एक संयुक्त नृत्य संवाद प्रधान होता है।
घुघती नृत्य
यह गढ़वाल क्षेत्र का नृत्य छोटे-छोटे बालक-बालिकाओं द्वारा मनोरंजन के लिए किया जाता है।
भैलो-भैलो नृत्य
यह गढ़वाल क्षेत्र का नृत्य दीपावली के दिन भैला बाँधकर किया जाता है।
सिपैया नृत्य
यह गढ़वाली क्षेत्र का नृत्य देश-प्रेम की भावना से ओत-प्रोत होती है। इस नृत्य से युवकों को सेना में जाने का हौसला में वृद्धि होती है।
रणभुत नृत्य
यह गढ़वाल क्षेत्र में वीरगति प्राप्त करने वालों को देवता के समान आदर किया जाता है। उनकी आत्माओं को शांति के लिए उस परिवार के लोग रणभुत नृत्य करते हैI इस नृत्य को ‘देवता घिरना’ भी कहते है।
पवाड़ा या भाड़ौं नृत्य
यह कुमाऊं एवं गढ़वाल क्षेत्र के ऐतिहासिक और अनैतिहासिक वीरों की कथाएं इस नृत्य के माध्यम से प्रस्तुत की जाती है। यहां ऐसी मान्यता है, कि वीरों के वंशजों में वीरों की आत्मा प्रवेश करती है। ऐसे व्यक्ति जिन में वह आत्मा प्रवेश करती है, उसे पस्वा कहते है व पस्वा विभिन्न अस्त्रों से कलाबाजियां करते हुए पवाड़ा नृत्य करता है।
जागर नृत्य
यह कुमाऊं एवं गढ़वाल क्षेत्र में पौराणिक गाथाओं पर आधारित नृत्य हैं, यह भी पस्वा द्वारा कृष्ण, पांडवों, भैरो, काली आदि को प्रसन्न करने के लिए किया जाता है। जागर गीतों का ज्ञाता को जगर्या हाथ में डमरू व थाली लेकर तथा हरिजन वादक औजी हुड़का-हुडको व ढोल-दामों को बजाते है।
झोड़ा नृत्य
यह कुमाऊं क्षेत्र में माघ के चांदनी रात्रि में किया जाने वाला स्त्री-पुरुषों का श्रंगारिक नृत्य है। मुख्य गायक वृत्त के बीच में हुडकी बजाता नृत्य करता है। यह एक आकर्षक नृत्य है, जो गढ़वाली नृत्य चांचरी के तरह पूरी रात भर किया जाता है। इस का मुख्य केंद्र बागेश्वर है।
बैर नृत्य
यह कुमाऊं क्षेत्र का गीत-गायन प्रतियोगिता के रूप में दिन व रात में किए जाने वाला नृत्य है।
भागनौली नृत्य
यह कुमाऊं क्षेत्र का मेलों में आयोजित किया जाता है। इस नृत्य में हुड़का और नगाड़ा प्रमुख वाद्य यंत्र है।
बगवान नृत्य
यह कुमाऊं क्षेत्र का लोकनृत्य है। इसमें दो पक्षों में विभक्त लोग एक-दूसरे पर पत्थर फेंकते है।
छोलिया नृत्य
यह कुमाऊं क्षेत्र का यह एक प्रसिद्ध युद्ध नृत्य है। जिसे शादी या धार्मिक आयोजन में ढाल व तलवार के साथ किया जाता है। गढ़वाल क्षेत्र के सरौ, पौणा नृत्य की तरह है। यह नागराज, नरसिंह तथा पांडव लीलाओं पर आधारित नृत्य है।
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touched by the dances and songs of Uttarakhanda
very nice.