निम्नलिखित गद्यांश को पढ़कर पूछे गए प्रश्नों के उत्तर दीजिए : (प्र. 91-95)
आज किसी भी व्यक्ति का सबसे अलग एक टापू की तरह जीना संभव नहीं रह गया है । भारत में विभिन्न पंथों और विविध मत-मतांतरों के लोग साथ-साथ रह रहे हैं। ऐसे में यह अधिक ज़रूरी हो गया है कि लोग एक-दूसरे को जानें; उनकी ज़रूरतों को, उनकी इच्छाओं-आकांक्षाओं को समझें उन्हें तरजीह दें और उनके धार्मिक विश्वासों, पद्धतियों, अनुष्ठानों को सम्मान दें । भारत जैसे देश में यह और भी अधिक ज़रूरी हैं, क्योंकि यह देश किसी एक धर्म, मत या विचारधारा का नहीं है । स्वामी विवेकानंद इस बात समझते थे और अपने आचार-विचार में अपने समय से बहुत आगे थे । उनका दृढ़ मत था कि विभिन्न धर्मों- संप्रदायों के बीच संवाद होना ही चाहिए। वे विभिन्न धर्मों- संप्रदायों की अनेकरूपता को जायज़ और स्वाभाविक मानते थे । स्वामी जी विभिन्न धार्मिक आस्थाओं के बीच सामंजस्य स्थापित करने के पक्षधर थे और सभी को एक ही धर्म का अनुयायी बनाने के विरुद्ध थे । वे कहा करते थे, “यदि सभी मानव एक ही धर्म को मानने लगें, एक ही पूजा- पद्धति को अपना लें और एक-सी नैतिकता का अनुपालन करने लगें, तो यह सबसे दुर्भाग्यपूर्ण बात होगी, क्योंकि यह सब हमारे धार्मिक और आध्यात्मिक विकास के लिए प्राणघातक होगा तथा हमें हमारी सांस्कृतिक जड़ों से काट देगा । हमें सभी धर्म-संप्रदाय पंथ- विचारों के लोगों को और उनकी विचारधाराओं और उपासना पद्धतियों को उचित सम्मान देना चाहिए। किसी भी व्यक्ति को चाहे वह किसी जाति-धर्म और भाषा से सम्बंधित है, प्रकृति ने समान बनाया है । सभी मनुष्यों में एक ही परमात्मा का वास है । जागतिक विकास की दृष्टि से कोई पिछड़ा हो सकता है। यदि कोई पिछड़ा हुआ है तो उसे अपने साथ ले लेने से मानवता खिल उठती है ।
91. ‘आध्यात्मिक’ शब्द में क्रमशः उपसर्ग, मूल शब्द और प्रत्यय हैं ?
(A) आधि + आत्मा + क
(B) आधि + आत्म + इक
(C) अध्य + आत्म + इक
(D) अधि + आत्म + इक
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92. ‘स्वामी विवेकानंद इस बात को समझते थे और अपने आचार-विचार में अपने समय से बहुत आगे थे ।’ वाक्य का प्रकार है
(A) सामान्य वाक्य
(B) विधिवाचक वाक्य
(C) संयुक्त वाक्य
(D) मिश्रित वाक्य
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93. गद्यांश के अनुसार धर्म-सम्प्रदायों के विषय में विवेकानंद का विचार था कि
(A) सभी धर्म समान हैं और धर्म-सम्प्रदायों की अनेकरूपता जायज़ और स्वाभाविक है ।
(B) भारत में केवल एक धर्म का पालन होना चाहिए ।
(C) हिन्दुओं को भारत में रहने और अपना धर्मपालन करने का अधिकार है ।
(D) केवल हिन्दू धर्म की पूजा पद्धति सही है
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94. हमारे धार्मिक और आध्यात्मिक विकास के लिए क्या प्राणघातक होगा ?
(A) भारत में अनेक धर्मों का पालन ।
(B) पिछड़े लोगों पर अन्याय करना ।
(C) भारत में एक से अधिक धार्मिक विश्वासों का अपनाना ।
(D) भारत जैसे देश में किसी एक धर्म का पालन
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95. मानवता कब खिल उठती है ?
(A) जब एकाधिक धर्मो को मानने वाले साथ रहते हैं।
(B) जब सभी का आध्यात्मिक विकास होगा ।
(C) जब सभी में स्थित एक परमात्मा को ही एकमात्र सत्य स्वीकार किया जाता है ।
(D) जब पिछड़ों को सहारा दिया जाता है ।
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निम्नलिखित गद्यांश को पढ़कर पूछे गए प्रश्नों के उत्तर दीजिए : (प्र: 96 – 100)
इस रत्नगर्भा वसुंधरा के अंतः स्थल में हीरे-मणि- माणिक्य और सम्पदा का अभाव नहीं है । धरती का विस्तीर्ण अतल गर्भ अनंत धनराशि से भरा पड़ा है । आवश्यकता है, इसके वक्ष को चीरकर उन्हें उगलवा लेने वाले दृढ़ संकल्प और साहस की । धरती के अंदर विद्यमान धनराशि के कारण ही धरती वसुंधरा कहलाती है। इस धरा पर रहने वाले कुछ लोग ऐसा मानते हैं कि यदि भाग्य में नहीं है तो हथेली पर आई वस्तु भी नष्ट हो जाती है । जब हम अपना चिंतन केवल भाग्यवाद को आधार मानकर करते हैं, तो हम लक्ष्य की प्राप्ति के लिए अपेक्षित प्रयत्न नहीं करते । प्रयत्न के अभाव में फल भी नहीं मिलता और लोग भाग्य को दोष देते रहते हैं । ऐसे भाग्यवादी लोगों को कायर माना जाता है । अकूत सम्पदा तो उसी को मिल सकती है जो पूर्ण संकल्प के साथ कार्य में प्रवृत्त हो । जैसे अर्जुन का ध्यान पक्षी की बेधे जाने वाली आँख पर था, उसी प्रकार जो लक्ष्य के प्रति एकनिष्ठ होकर सतत प्रयासशील रहता है, समय के परिपाक के साथ उस लक्ष्य को पाने में सफल हो जाता है । ऐसे लोग जो भाग्य के सहारे बैठे रहते हैं और प्रतीक्षा करते रहते हैं कि अली बाबा की सिम-सिम वाली गुफा का द्वार कब खुलता है, उन्हें जब असफलता का अँधेरा अपने चारों ओर घिरता दिखाई देता है, तब वे पछतावा करते हैं कि उन्होंने व्यर्थ ही समय गँवा दिया । मनुष्य के पास सभी कुछ पा लेने की क्षमता होती है, पर कैसे उसे पाया जाएगा उसके लिए संपूर्ण निर्णयशक्ति, दृढ़ संकल्प और अपेक्षित परिश्रम आवश्यक है। कई बार लक्ष्य के एकदम समीप पहुँच कर हम प्रयत्न करना छोड़ देते हैं और भाग्य को दोष देते हैं । भाग्य जैसी कोई वस्तु या तो होती ही नहीं है और या परिश्रम की चाबी. के साथ मिलकर भाग्य की चाबी काम करती है । भाग्य की अकेली चाबी सफलता के ताले को नहीं खोल सकती । इसीलिए कवि तुलसीदास ने कहा है- कायर मन कर एक अधारा । दैव दैव आलसी पुकारा ॥
96. भाग्य को कौन लोग दोष देते रहते हैं ?
(A) जो परिश्रमशील होते हैं और सफल हो जाते हैं ।
(B) जिनको पहले से पता होता है कि उन्होंने मेहनत- नहीं की है और वे सफल होने वाले नहीं हैं।
(C) जो किसी भी परिस्थिति का सामना करने के. लिए तैयार रहते हैं ।
(D) जो प्रयत्न के अभाव में फल न मिल पाने के कारण बचाव का बहाना खोजते हैं।
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97. ‘परिश्रम’ शब्द कौन सी व्याकरणिक इकाई है ?
(A) संज्ञा
(B) क्रिया-विशेषण
(C) विशेषण
(D) सर्वनाम
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98. जब हम अपना चिंतन केवल भाग्यवाद को आधार मानकर करते हैं तब क्या होता है ?
(A) हम सफल हो जाते हैं ।
(B) संपूर्ण निर्णयशक्ति, दृढ़ संकल्प और अपेक्षित परिश्रम करने के कारण सफलता पा लेते हैं ।
(C) हम लक्ष्य की प्राप्ति के लिए अपेक्षित प्रयत्न नहीं करते हैं और असफल होते हैं ।
(D) हम पूरी तरह से मेहनत करते हैं।
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99. जीवन में भाग्य का फल किसको मिलता है ?
(A) जो भाग्य के सहारे बैठे रहते हैं और प्रतीक्षा करते रहते हैं कि अली बाबा की सिम-सिम वाली गुफा का द्वार कब खुलता है ।
(B) जो दैव-दैव पुकार कर सफलता के ताले को खोलने का प्रयास करते हैं ।
(C) जो परिश्रम की चाबी के साथ भाग्य की चाबी मिलाकर सफलता का ताला खोलने का प्रयास करते हैं ।
(D) जो भाग्य की अकेली चाबी से सफलता के ताले को खोलने का प्रयास करते हैं ।
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100. गद्यांश में कायर किसको माना गया है ?
(A) जो युद्ध में शत्रु को पीठ दिखाकर भाग जाए ।
(B) जो मेहनत करने से पीछे न हटे।
(C) जो पड़ोसी के ललकारने पर घर के अंदर छिप जाए ।
(D) जो अपेक्षित परिश्रम से डरकर भाग्य का आश्रय ले ।
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